पश्चिम चम्पारण . बिहार
प्रशासन ने आयोजित किया अदभूत खाद-बीज मेला: बकौल पदाधिकारी किसानों हेतु बरदान
परन्तु कई कहते विक्रेता-कृषि विभाग का खेला
तरंग टीम
विगत नवम्बर माॅंह में जिला कृषि विभाग ने बीज एवं खाद विक्रेताओं का बेमेल विवाह कराकर किसानों के हित के लिए एक अप्रत्याशित मेंला का आयोजन किया। इसका मुख्य लक्ष्य था किसानों को उचित दर पर खाद, खासकरके डी0ए0पी0, प्राप्त हो जाय। क्योंकि चैतरफा शिकायत थी कि खाद विक्रेता इसे मनमाने मूल्य पर, यानि कि बोरा डी0ए0पी0 पर कम से कम 200 रुपया अधिक वसूल रहे हैं। शायद कृषि विभाग तथा जिला प्रशासन किसानो को इस आतंक से मुक्त करने के ध्येय से ही बेतिया, बगहा तथा नरकटियागंज में नवम्बर 10 से 30, 2008 तक कृषि मेला का आयोजन किया। इसका माॅनिटरिंग खुद जिला पदाधिकारी दिलीप कुमार ने किया।
इस मेला से जरुर किसान लाभान्वित हुए क्योंकि उन्हें खाद के लिए प्रति बोरा 200.250 रुपये अधिक नहीं देने पड़े, हाॅं प्रशासन की सहमति से खाद विक्रेताओं ने प्रति बोरा मात्र 10.15 रुपया उचित मूल्य से ज्यादा ढूलाई-पोलदारी खर्च के नाम पर जरुर वसूला। कृषि विभाग के सूत्रों के अनुसार इन तीनो अनुमंड़लों के मेलों में लगभग 15 हजार बोरा खाद, खासकर आइ0पी0एल0 तथा इफको का डी0ए0पी0, किसानों को उपलब्ध कराया गया। इसके अतिरिक्त जिंक सल्फेट तथा पोटाश आदि भी उचित दर पर ही उपलब्ध कराये गये। अगर इन मेलों का आयोजन नहीं होता तो खाद विक्रेता कम से कम प्रति बोरा 200 रुपया के हिसाब से किसानों से लगभग 30 लाख रुपये जरुर दिन दहाड़े लूट लेते। किसानों को इतने धन डकारने की मजबूरी होती अन्यथा उनकी रवी की खेती चैपटहो जाती। इसके लिए जिला पदाधिकारी दिलीप कुमार तथा जिला कृषि पदाधिकारी शैलेश कुमार धन्यवाद के पात्र हैं।
परन्तु कुछ किसान नेता तथा कृषि के जानकार पूछते हैं कि क्या प्रशासन केवल खाद विक्री हेतु इन मेलों का आयोजन नहीं करा सकता था? आखिर क्या मजबूरी थी कि खाद तथा बीज का यह संयुक्त स्वयंवर मेला आयाजित कराना पड़ा ? सर्वविदित है कि कालाबाजारी का कलंक खाद विक्री पर ही लगता है। गेहू या अन्य बीजों की कालाबाजारी तो आजतक सूनने को भी नहीं मिला है। केन्द्र सरकार संभवतः वर्ष 2007 से 500 रुपया प्रति क्विंटल गेहू बीज पर अनुदान देती रही है। प्राप्त आंकड़ो के अनुसार वर्ष 2007 की गेहू बुआई के दौरान इस जिले के अधिकृत बीज विक्रेताओं ने करीब 5000 बैग यानि 40 किलो प्रति बैग के हिसाब से 2000 क्विंटल गेहू बीज किसानों से बेचा था। इस प्रकार वर्ष 2007 में किसानों को 10 लाख रुपयों की राहत केन्द्रीय अनुदान के वजह से प्राप्त हुयी थी।परन्तु बीज प्राप्त करने में किसी भी किसान को कोई परेशानी होने की सूचना या शिकायत वर्ष 2007 में सुनने को नहीं मिली थी।
वैसे यह चर्चा जरुर हुयी थी कि बीज विक्रेताओ ने वास्तव में 2000 क्विंटल गेहू बीज नहीं बेचे थे। और कुछ हद तक कागजी खेल हुआ था जिससे वे बिना बीज बेंचे ही तथा बेचने की प्रक्रिया में होने वाली परेशानियों को बिना झेले सरकार के अनुदान राशि यानि 500 रुपया प्रति क्विंटल हड़प लिया जाय। निसंदेह यह सब कृषि विभाग के आकाओं के साठ-गाॅंठ के बिना संभव हो ही नहीं सकता।
जानकार बताते हैं कि जिला पदाधिकारी ने इन मेलों में खाद-बीज विक्री का बेमेल विवाह कराकर बीज विक्रेताओं के लिए आमदनी का पीटारा खोलने में जाने अनजाने मदद कर दिये। यह सब जिला पदाधिकारी कृषि विभाग के पदाधिकारियों के सलाह पर ही किये होगें। और यह सर्वविदित है कि कृषि विभाग के लोगों के दिल में किसानों के प्रति कितना प्रेम भरा है। अगर वास्तव मे इनके दिलों में किसानों के लिए थोड़ी भी रहम होती तो क्या खाद विक्रेता खादों की कालाबाजारी करने का साहस कर पाते।
जानकारों के अनुसार इन मेलों में खाद-बीज की संयुक्त विक्री, यानि एक बैग खाद उचित मूल्य पर उसी को मिलेगा जो एक बोरा गेहू का बीज लेगा, का निर्णय लेने के पीछे एक मात्र ध्येय यही था कि बीज पर प्राप्त केन्द्रीय अनुदान की राशि को ज्यादा से ज्यादा हड़पा जा सके। वैसे कृषि विभाग के शीर्ष पदाधिकारी तर्क देते हैं कि ऐसा करने का मुख्य लक्ष्य था कि किसानों को ज्यादा से ज्यादा सर्टिफायड़ बीज लगाने के लिए प्रेरित किया जाय जिससे की गेहू उत्पादन में वृद्धि लायी जाय क्योंकि अच्छे बीज से ही अच्छा फसल होता है।
प्रश्न उठता है कि क्या इस जिले के किसान इतने मूर्ख हैं कि वे उत्तम बीज का उपयोग करने से भागते हैं? ज्ञातव्य हो कि विगत चार दशकों से यहाॅं के किसान नये नये उत्तम कोटि के बीजों का उपयोग करते आ रहे हैं तथा मौसम अनुकूल रहने पर यहाॅं गेहूं का उत्पादन भी काफी अच्छा होता रहा है। सरकारी अनुदान नहीं रहने पर भी यहाॅं के किसान विभिन्न जगहों से प्रति वर्ष कम से कम 1000 क्विंटल गेहू बीज प्राप्त कर वर्षों से बुआई करते रहे हैं। 1000 क्विंटल का अर्थ हुआ कम से कम 1000 हेक्टेयर खेत में नये बीजों की बुआई जिससे औसतन 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज के हिसाब से कम से कम 25,000 क्विंटल गेहंू की पैदावार होना। और इस कुल उपज को कम से कम 15,000 क्विंटल दूसरे वर्ष किसान बीज के रुप में करते हैं, जो वे काफी सस्ते दर पर अपने ग्रामीण किसानों से प्राप्त करते हैं, ज्यादा से ज्यादा 11-12 रुपया किलो की दर से, जबकि दूकानों पर उन्हें किसी भी हाल में 20 रुपया से कम में नहीं ही मिल पाता है।
ज्ञातव्य हो कि एक बार सर्टिफायड बीज लगाने के बाद उससे पैदा हुए बीज को कम से कम अगले दो वर्षों तक बीज के रुप में उपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार किसान प्रत्येक तीसरे वर्ष स्वतः बिना किसी के दबाव या प्रेरणा के ही नये सर्टिफायड बीजों का उपयोग करते रहते हैं। आखिर उन्हें अपने पेट की चिन्ता है। और पेट की चिन्ता नौकरशाहों की सलाह से ज्यादा प्रभावकारी होती है।
ऐसी पृष्ठभूमि में अब प्रश्न उठता है कि आखिर किसानों को खाद के साथ बीज भी खरीदने के लिए क्यों बाध्य किया गया? कृषि विभाग से प्राप्त आकड़ों के अनुसार इन मेलों सहित बाद में भी जारी विक्री के दौरान पूरे जिले में इस रवी बुआई हेतु करीब 8,000 क्विंटल गेहॅंू बीज की विक्री अनुदानित दर पर हुयी है।
इसका अर्थ है कि इस रवी मौसम में यहाॅं के किसानों को 40,00,000/-यानि चालीस लाख रुपये का अनुदान मात्र गेहॅंू बीज पर प्राप्त हुआ है। गेहॅंू बीज का इतने बडे़ पैमाने पर विक्री ही अपने आप में एक विकराल प्रश्न खड़ा करता है। विगत वर्षों में कभी भी बीज दुकानदारों ने इतनी मात्रा में किसी एक वर्ष मे गेहॅंू बीज की विक्री नहीं की हैं। ऐसे तो इतनी भारी मात्रा में गेहॅंू बीज की विक्री तो कृषि विभाग तथा जिला पदाधिकारी का पीठ थपथपवाने के लिए एक तरह से प्रमाणिक साक्ष्य है। परन्तु पुनः प्रश्न उठता है कि कभी भी इतनीमात्रा में गेहॅंू बीज नहीं बेचे जाने के उपलब्ध इतिहासके मद्देनजर इस जिले के बीज दुकानदार इतनी मात्रा में पहले से ही बीज कैसे मंगा लिए थे। किसी भी प्रमाणिक बीज का दाम 2000 रुपये प्रति क्विंटल से कम नहीे है। इसका अर्थ है कि दुकानदारों ने 8,000 क्विंटल गेहॅंू बीज के लिए कम से कम 1.5 करोड़रुपये की पूॅंजी तो जरुर लगायी होगी। क्या वे वास्तव में ऐसा किये होंगे, खासकरके पूर्व के वर्षों की विक्री के आंकड़ो का ख्याल करते हुए। जानकारों का आरोप है कि गेहॅंू बीज की इतनी विशाल मात्रा में विक्री होना विश्वास करने वाली बात है ही नहीं। वास्तव में इन कृषि मेलों में पर्दे के पीछेबहुत कुछ हुआ। दलालों ने सैकड़ों लोगों को कुछ रुपये के लालच में खड़ा कर जाली भूमि रसीदों के आधार पर खाद-बीज प्राप्त करने का षड़यंत्र रचा। खाद तो प्राप्त कर लिए गये, परन्तु बीज विक्री मात्र कागज पर कुछ लेन देन कर हो गयी। प्रायःकिसानों को जिस दिन खाद-बीज का रसीद कटता था, उसी दिन उन्हें बीज नहीं मिलता था, जबकि खाद मिल जाता था। और बाद में बीज की कागजी विक्री दिखाकर खेल खत्म कर दिया। इन दलालों को तो खाद से मतलब था जिसपर वे मनचाहा रुपया वसुल सकते थें। और बीज दुकानदारों को मतलब था कागज पर ही ज्यादा से ज्यादा विक्री दिखाने से जिससे कि उन्हें बिना पॅंूजी लगाये सरकारी अनुदान की राशि मिल जाय। आखिर यह सत्य नहीं है तो फिर ये बीज दुकानदार कैसे इतने बीज को मूल उत्पादकों से एक दो दिनों में प्राप्त कर लेते थें ? इस आरोप को मनगढ़ंत कहा जा सकता है। परन्तु इसकी सत्यता जानने हेतु आवश्यक है कि सरकार एक स्वतंत्र जाॅंच दल गठित कर यह जाॅंच करावे कि ये दुकानदार क्या वास्तव में मूल बीज उत्पादकों से ही सब बीज प्राप्त किये या कागजी खेल खेले, या फिर स्थानीय गैर प्रमाणित गेहॅंू बीजों को प्रमाणित बीज बोरों में भर कर किसानों को उपलब्ध करा दिये। इस जिले में एन0एस0सी0,इन्ड़ो-गल्फ, टी0एस0सी0, गंगा कावेरी, बी0आर0बी0एन0, दयाल सीडस आदि बीज उत्पादकों के बीज बेचे गये हैं। एन0एस0सी0 ने सीधे अपना विक्री केन्द्र खेालकर बीज बेचा। परन्तु अन्यों के बीज उनके डीलरों ने बेचा।
अतः आवश्यकता है कि इन उत्पादकोंके विक्री दास्तवेजों को जाॅंच कर यह पता लगाया जाय कि प0 चम्पारण के बीज दुकानदार कितनी मात्रा मे उनसे बीज प्राप्त किये। तब ही इस रहस्यमय स्थिति से उबरा जा सकता है। परन्तु क्या सरकार या जिला प्रशासन के लिए इसकी जाॅंच करानी संभव हो पायेगी। आखिर, यह सरकारी अनुदान की बडी राशि को डकारने का खेल है। इसमें छोटे बडे सभी संलिप्त हो सकते हैं!
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