Monday, January 26, 2009

  बाल्मकिनगर संसदीय क्षेत्र
  टिकट के लिए जदयू में उभरे कई खेमें: सब अपने को कहते नीतीश के चहेते  
  ऐसा लग रहा कि जदयू टिकट मायने जीत की गारन्टी

 तरंग टीम
  बाल्मीकिनगर संसदीय क्षेत्र पर जदयू का कब्जा रहा है। अतः स्वभाविक है कि इस दल के नेता इसे अपना विरासत मानने लगे हो। वैसे भावी चुनावी दंगल कौन जितेगा, कौन हारेगा, पूर्व के आकड़ो तथा परिणामों के आधार पर भविष्यवाणी करना पूर्णतः विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता। फिर भी भविष्य की राजनीतिक दिशा पूर्व की स्थिति जरुर कुछ हद तक प्रभावित करती है। खैर, वर्ष 2009 के संसदीय चुनाव की स्थिति पहले से तो जरुर काफी बदली हुयी है। पहले यह क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित था। इसलिए वोटरों तथा राजनीतिक दलों के पास उम्मेदवारों के चयन में ज्यादे विकल्प नहीं थे। परन्तु अब तो सभी दलों में उम्मेदवारों की फौज खड़ी हो गई है। जब अन्य दलों में टिकट के लिए मारा मारी जोरो पर है, तब जदयू में तो सबसे ज्यादा टिकट हथियाने के लिए दाव पेंच जारी होना चाहिए।टिकट के लिए लार टपकाने वाले सभी भावी उम्मेदवार आश्वस्त है कि जदयू का अधिकृत उम्मेदवार घोषित होते ही मानो कि जनता उन्हें अपनी गोद में उठाकर संसद पहुॅंचा देगी। वैसे यह सत्य है कि नीतीश सरकार की जलवा का भ्रमजाल अभी भी ज्यादातर जनता को फॅंसाये हुए है। जनता को अभी भी भरोसा है कि लालू यादव की तुलना में नीतीश कुमार की नीयत जनता का कल्याण करना है, भले जमीनी स्तर पर लालू राज के पले पोसे तथा लालू राज को पुनः वापस लाने के सपने सजोये कुछ महत्वपूर्ण पदाधिकारी, अभियन्ता तथा उनके दलाल जन कल्याण के कार्यक्रमों को घून तथा दीमक सदृश्य चाट रहे हैं।अतः नीतीश कुमार द्वारा सच्चे मन से चुने हुए जदयू के संसदीय उमेद्वार को जनता जरुर सिरोधार्य करेगी। परन्तु इसका अर्थ कदापि नहीं है कि नीतीश जी जिस किसी को थोप देंगे उसे जनसमर्थन मिलने की गारंटी होगी ही।
  इसलिए नीतीश जी को काफी सोच विचार कर अपने उम्मेदवार को चुनने होगे। उन्हें ख्याल रखना होगा कि कोई जरुरी नहीं है कि पुराने चुनावी धुरन्धर ही इस सीट पर जीत का परचम लहरा सके। वे बूरी तरह सिकस्त भी हो सकते हैं। संभव है कि कोई नया चेहरा जनता का दिल जीतने मे ज्यादा सफल हो। राजनीतिक पर्यवेक्षक कहते हैं कि नीतीश जी के लिए उम्मेदवार चयन में किसी नये चुनावी चेहरा को महत्व देना ज्यादा फायदेमंद हो सकता है। पुराने चुनावी महारथियों के पास अकूत धन हो सकता है, परन्तु अकूत धन अर्जन के दौरान उनके द्वारा किये गये कुकर्मों को चुनाव के समय कहीं जनता याद कर ली तो जदयू को लेना का देना पड़ जायेगा। और किसी दूसरे दल का लोमड़ी बुद्धि वाला कोई चुनावी शिकारी जनता के वोटों का शिकार न कर ले।
खैर, जदयू की उम्मेदवारी किसके तकदीर में दर्ज है यह अगले कुछ सप्ताहों में स्पष्ट हो जायेगा। संभवतः नीतीश जी का ‘सरकार आपके द्वार’ का प्रभावकारी रामलीला कार्यक्रम की शुरुआत इस क्षेत्र से ही शुरु होने का यह भी कयास लगाया जा रहा है कि कहीं वे यह पता करने तो नहीं आ रहे हैं कि यहाॅं के चुनावी दंगल में किस पहलवान को भिड़ाया जाय। जदयू में कसरत कर रहे सभी पहलवान तो पुरुष ही हैं, परन्तु वे यह पता करना चाहते हैं कि ये पहलवान वास्तव मे दमदार हैं या सिखन्ड़ी तो नहीं जिन्हें प्रचार में जुटाकर वोट इकठ्ठा तो किया जा सकता है, चुनावी युद्ध में लड़ाया नहीं जा सकता। अगर ऐसी स्थिति है तो क्यों न किसी महिला को ही यहाॅं से जदयू उम्मेदवार बना दिया जाय। आखिर नारी सशक्तिकरण केप्रणेता हैं नीतीश जी। आज उन्हीं कादेन है कि पंचायती राज व्यवस्था में 50 प्रतिशत से ज्यादा पदों पर महिलायें विराजमान हैं। राज्य के एक नम्बर बाल्मीकिनगर क्षेत्र से किसी नारी को टिकट देकर देश में वर्षों से जारी महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीट आरक्षित करने के असफल प्रयास को कहीं ये अमलीजामा पहनाना अपने दल से ही शुरु न कर दे।
  खैर, यह भविष्य की कोख में छिपा है कि कौन वास्तव में जदयू उम्मेदवार होगा। परन्तु भावी उम्मेदवारों में सबसे ज्यादे बेचैन तथा आकाश पाताल एक करने में जुटे लोगों में पूर्व मंत्री एवं नौतन विधायक बैद्यनाथ महतो, पूर्व मंत्री तथा बगहा विधायक पूर्णमासी राम, लौरिया विधायक प्रदीप सिंह एवं जदयू जिला अध्यक्ष शम्भू गुप्ता का नाम अग्रणी है। कुछ अन्य आशान्वित लोग भी हैं, परन्तु वे गुमनाम रहकर ही सूक्ष्म तरीकें से अपनी उम्मेदवारी को सशक्त करने में लगे हैं। वे हवाबाजी से अलग हैं, परन्तु आश्वस्त हैं कि अगर नीतीश जी घीसे-पीटे राजनीतिक मुहरों से चुनावी दाव नहीं खेलने का निर्णय लेते हैं, तो उनकी चांदी कट सकती है और वे विजय श्री को भी पाने में सफल होगें। क्योकि जनता भी पुराने धुरन्धरों से उनके धन अर्जन संस्कार से उब चुकी है।
 विगत 21 दिसम्बर को आयाजित जदयू का ‘सम्मान सभा’ को सफल बनाने में इन भावी उम्मेद्वार धुरन्धरों तथा गुमनाम मुकद्दर के सिकन्दरों ने भी अपनी पूरी शक्ति झोक दी थी। सबों का प्रयास था कि पार्टी के राज्य अध्यक्ष ललन सिंह के नजर में उनकी औकात बढ़ जाय क्योंकि ललन सिंह मुख्य मंत्री नीतीश के आॅंख कान माने जाते हैं। अतः ललन जी के यहाॅं अगर गोटी फिट हो गयी तो फिर चाॅंदी ही चाॅंदी है। मात्र पूर्णमासी राम आयोजन को सफल बनाने में सहयोग देने की बात कौन कहे सभा में शामिल तक नहीं हुए। उनके भाई तथा विधान परिषद सदस्य राजेश राम भी समारोह से नदारद थे। खैर इससे पूर्णमासी राम की उम्मेदवारी के स्वपन पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है। वे ललन सिंह जैसे प्राॅंक्सी आंख-कान का परवाह नहीं करते। उनकी कोशिश रहती है कि सीधे नीतीश जी की आंखों के समक्ष तथा कानों में अपनी बात कहीं जाय। खैर देखे कि कौन जदयू का भावी उम्मेदवार क्या-क्या सपना सजोये हुए है तथा किस आधार पर संसदीय टिकट का दावा ठोक रहा है तथा उसकी जमीनी राजनीतिक हकिकत क्या है। 
सबसे पहले चर्चा बगहा के विधायक पूर्णमासी राम की की जाय। श्री राम बाल्मिकीनगर क्षेत्र के जदयू टिकट का अपने को स्वभाविक उत्तराधिकारी मानते हैं। वे यहाॅं के विधान सभा चुनाव में वर्ष 1990 से ही लगातार अपने प्रतिद्वन्दियों को पछाड़ते रहे हैं। वे किसी भी बड़े नेता की दबदबा भी नहीं सहते हैं। यही कारण है कि उन जैसे प्रभावशाली दलित नेता को महादलितो के मसीहा कहलाने के
को महादलितो के मसीहा कहलाने के
जुगाड़ में लगे मुख्य मंत्री नीतीश कुमार अपने मंत्रीमंड़ल में शामिल तक नहीं किये। श्री राम से लालू यादव भी खार खाये रहते थे। कारण था श्री राम का किसी बड़े नेता के आगे दांत नहीं चिआरना। उनकी धारणा है कि सिंहासन पर बैठ जाने से कोई बड़ा नेता नहीं हो जाता। उनके ऐसे स्वतंत्र स्वभाव को भला कौन घोंटता। फलस्वरुप वे कई पार्टियों की तीर्थयात्रा भी करने से नहीं हिचके। जदयू ने भी उन्हें विधान सभा का टिकट देकर कोई दया नहीं की थी। जदयू को ज्ञात था कि पूर्णमासी को मात देनेवाला कोई दूसरा पहलवान उस वक्त बगहा के राजनीतिक अखाड़े में नहीं था। 
 पर अब स्थिति बदल गयी है। अनारक्षित बाल्मीकिनगर क्षेत्र को सभी दलों के तरह जदयू भी दलित नेताओं के लिए अछूत मान रहे हैं। वैसे राजनीतिक जानकारों का मानना हैं कि इस क्षेत्र में पूर्णमासी राम ही ऐसा नेता हैं जो दलित होते हुए भी सभी जातियों तथा सभी मतों के लोगों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं। परन्तु जदयू नेतृत्व को पूर्णमासी राम स्वीकार्य नहीं है और पूरी संभावना है कि जदयू इनके दिल्ली जाने का सपना चकनाचूर न कर दे। परन्तु जानकारों का मानना है कि श्री राम को अगर टिकट नहीं मिलता है तो वे चुप नहीं बैठेगे और स्वतंत्र उम्मेदवार या राजद या बसपा के टिकट पर चुनावी समर में कुद सकते हैं।बसपा या राजद चुनाव जीतने के लिए किसी भी पूर्व घोषित या प्रचारित उम्मेद्वार को दर किनार कर श्री राम को टिकट दे सकते हंै। अगर ऐसा होता है तो जदयू के लिए जीत मृगमरीचिका बन सकती है। भले नीतीश जी कितना भी ‘सरकार जनता के द्वार‘ का माला जपते रहें। निसंदेह श्री राम के पास पैसा, प्रभाव तथा जन समर्थन तीनों हैं। और जदयू को इसका ख्याल रखना होगा तथा श्री राम को या तो टिकट देना होगा या उचित मुआवजा। वरना वे जदयू के लिए शंकट का स्त्रोत बने रहेगें।
दूसरा प्रबल दावेदार हैं पूर्व मंत्री तथा नौतन विधायक बैद्यनाथ महतो। उनका इस क्षेत्र से कुछ लेना देना नहीं रहा है। उनका यहाॅं से उम्मेद्वार होने का सपना देखना तो आकाश से तारे तोड़ने जैसा होता। परन्तु गत वर्ष मंत्रीमंड़ल सेनिष्कासन के बाद नीतीश कुमार ने उनके घर आकर उनकी आॅंखों के आॅंसू पोछने हेतु उन्हें बाल्मीकिनगर संसदीय सीट का तौफा दिया था। ऐसा दावा कुछ अन्य लोगों के साथ स्वयं श्री महतो करते हैं। उन्होंने ‘तराई तरंग’ से भी इसी बात को दोहराया है। श्री महतो आश्वस्त दिखते है कि नीतीश के मुख से निकला वचन रघूकुल के राम के वजन के सदृश्य है और वे ही बाल्मीकिनगर के चुनाव रथ का बागड़ोर संभालेगें। श्री महतो का कहना है कि उन्हें मंत्रीमंड़ल से अलग इस लिए किया गया कि वे पार्टी का कार्य देखे क्योंकि उनका आम जनता से 
लगाव जग जाहिर है।
  खैर, उनके कुछ आलोचकों का आरोप है कि श्री महतो ग्रामीण विकास मंत्रालय को अपने पूर्व के बेतिया स्थित सहाकारिता बैंक के खजांची के अवतार के तरह चला रहे थे तथा नीतीश जी के बिहार के नये विकास माॅंडल का सत्यानाश करने पर तुले थे, जिस वजह से उनकी छुट्टी करनी पड़ी थी।परन्तु नीतीश जी के प्रति हमेशा वफादार रहे श्री महतो को कुछ न कुछ लाज रखने के लिए तो लौलीपाॅप मिलना चाहिए था। सो नीतीश जी ने आश्वासन दे ड़ाला होगा। वैसे जदयू की वास्तविक राजनीति में अब श्री महतो कोई खास महत्व नहीं रखते। सर्वविदित है कि जदयू की राजनीतिक रीढ़ की हड्डी यानि लव-कुश यानि कुर्मी-कोईरी समीकरण कोइरी समुदाय के सर्वप्रिय नेता उपेन्द्र कुशवाहा के जदयू से एक प्रकार से धक्का देकर निकालने के साथ ही टूट गयी थी। अतः उपेन्द्र कुशवाहा को बिहार के भावी मुख्य मंत्री के रुप में देखने वाला संख्या के मामले में कुर्मी जाति से ज्यादा मजबूत कोइरी समाज अब किसी भी स्थिति में
कुर्मी जाति के सर्वमान्य नेता नीतीश के दल को वोट देने वाला नहीं है। भले जदयू का उम्मेदवार कोइरी ही क्यों न हो। 
  अतः संशय बना हुआ है कि नीतीश जी श्री महतो को यहाॅं से उम्मेदवार बनायेगे या नहीं। वैसे श्री महतो भी इस तथ्य से अवगत हैं। फिर भी वे नीतीश जी के प्रति अपने पूर्व की वफादारी के बल पर टिकट पा लेने के लिए जी जान लगाये हुए हैं। श्री महतो की बेचैनी का कारण है कि वे इस तथ्य से भलीभांति अवगत हैं कि पुनः वे नौतन विधान सभा क्षेत्र से जीतने वाले नहीं है क्योंकि यहाॅं का ताकतवर कोइरी समुदाय उनकों नीतीश जी के लटकन के रुप में घोटने को तैयार नहीं है। दस्यु भागड़ विरोध नैया की सवारी भी श्री महतो को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी।परन्तु बेतिया पुलिस की कप्तान के0एस0 अनुपम के प्रयास से भागड़ के आत्मसमर्पण के साथ ही श्री महतो की वह दस्यु विरोधी नैया भी डूब गयी है। अतः वे चाह रहे हैं कि किसी प्रकार बाल्मीकिनगर संसदीय टिकट झटक ले जिससे कि उन्हें नौतन की जनता का फिर मूॅंह न देखना पड़े क्योंकि उन्हें भय है कि अगली बार नौतन से फिर उन्हें फूलों का विजय हार मिलने वाला नहीं है, बल्कि ज्यादा संभावना पराजय की कालिख पुतने की ही है। वैसे अगर उन्हें जदयू टिकट मिलता है तो आशा है कि जदयू-भाजपा की जातीय समीकरण उनके सर पर जीत का सेहरा बांध दे, बसर्ते दोनो दलों का एक दूसरे के प्रति विश्वास बना रहे। संभव है कि संसद मे जाने हेतु उन्हें इस क्षेत्र का उनका कोइरी समुदाय जो लौरिया तथा धनहा में प्रभावशाली है अपना समर्थन देदे। क्योंकि दिल्ली में जाने के बाद कहीं येउपेन्द्र कुशवाहा का ही धून गाने लगे। आखिर दिल्ली काफी तिलश्मी है। वहां कोई भी अपना रंग बदल सकता है।
  इस संसदीय क्षेत्र की नुमाइन्दगी हेतु लौेरिया विधायक प्रदीप सिंह भी काफी हाथ पाव मार रहे हैं। जानकारो ेका कहना है कि उनकी दावेदारी का मुख्य आधार उनका जदयू सुपी्रमो मुख्य मंत्री नीतश कुमार से जातीय तार जुड़ा होना। 
उन्हें लौरिया से भी जदयू की उम्मेदवारी का आधार यह तार ही था। अन्यथा जातीय संख्या बल के आकड़ों के खेल में लौरिया क्षेत्र में कुर्मी मतदाताओं की स्थिति बेहद लचर है। परन्तु जब नीतीश कुमार ही राजनीतिक संरक्षक हो तब उन्हें टिकट मिलने की गारन्टी से इनकार नहीं किया जा सकता। अभी नीतीश जी का सितारा बुलन्द है, अतः उनके संरक्षित उम्मेदवार की जीत का स्वप्न भी सच होने की काफी उम्मीद है। जहँँा तक बाल्मीकिनगर संसदीय क्षेत्र में उनकी लोकप्रियता का प्रश्न है वह खस्तेहाल की ही स्थिति में कही जायेगी। वैसे बैद्यनाथ महतो की भी लोकप्रियता की स्थिति कोई ठीक नहीं कही जायेगी, भले ही पैसे के बल पर गाड़ियों का काफिला उनके साथ दौड़ते क्यों न दिखाई पड़ता हो। फिर भी ये दोनो लोक सभा पहुॅंचने के लिए लार टपका रहे हैं। श्री महतो के तरह ही प्रदीप सिंह का राजनीतिक भविष्य लौरिया विधान सभा क्षेत्र में लकवाग्रस्त ही दीख रहा है। श्री सिंह 2005 में बसपा उम्मेदवार शम्भु तिवारी से उंगली पर गिनने वाले मतों के अन्तर से ही जीत पाये थे।उनकी जीत का श्रेय अगर किसी को
दिया जा सकता है तो वह है पूर्व की चट्टानी लव-कुश एकता। परन्तु अब यह एकता ध्वस्त हो चुकी है। यह सर्वविदित है कि कोइरी समुदाय यहां काफी सशक्त है और उसका जदयू से तलाक होने का स्पष्ट अर्थ है कि श्री सिंह के लिए अगली बार विधान सभा का मुंह देखना असंभव हो सकता है। यह भी सत्य है कि जदयू से कोई नया शक्तिशाली वोट बैंक विगत तीन वर्षों के इसके शासन काल में जुट नहीं पाया है। मुसलमानो तथा महादलितों का जदयू से जुटना तो अखबारी पैतरेबाजी छोड़ कुछ नहीं है। अतः श्री सिंह की एक मात्र चाहत है कि वे किसी प्रकार विधान सभा चक्रव्यूहु से निकल कर संसदीय राजनीति में प्रवेश कर जाय। संसदीय स्तर पर वे कोइरी वोटरों के नागफाॅंस से बच सकते हैं क्योंकि बाल्मीकिनगर क्षेत्र में कोइरी जाति संख्या बल के दृष्टिकोण से कोई खास बलशाली नही है। संभवतः नीतीश जी अपने प्रियपात्र प्रदीप जी की साप-छछूंदर वाली स्थिति से अवगत हो और उन्हें इससे मुक्ति दिलाने हेतु कहीं इस क्षेत्र का नेतृत्व न देदे। इसी आशा तथा रणनीति के अनुरुप श्री सिंह अपनी उम्मेदवारी का तीर दागने लगे हैं। कहीं तीर लक्ष्य को बेध न दे और वे संसद पहुॅंच जाय तथा लौरिया क्षेत्र के लव-कुश द्वन्द से सदा के लिए मुक्त हो जाय। पर क्या नीतीश जी उन्हें मुक्ति दिलाने में सफल हो पायेगे? इस पर से पर्दा उठने में अभी कुछ समय और लगेगा।
  जदयू के चैथे लंगोट कसे पहलवान हैं शम्भु गुप्ता जो पार्टी के जिला ईकाई के जन्म से ही अध्यक्ष रहे हैं। श्री गुप्ता जरुर लक्ष्मी कृपा से वंचित रहे हैं, परन्तु पूर्णतः लोहियावादी हैं तथा यहाॅं की जनता के बीच के नेता कहे जा सकते हैं। ये आशान्वित है कि नीतीश जी की कृपा दृष्टि उनपर है और वे कार्यकर्ताओं की मर्यादा की रक्षा करते हुए उन्हें हीबाल्मीकिनगर संसदीय क्षेत्र का कमान सौपेगें। उनसे बात करने पर स्पष्ट लगता है कि उनका मनोबल काफी उच्चा है। परन्तु राजनीति के वर्तमान आयामों के जानकार मानते हैं कि आज की राजनीतिक अपसंस्कृति के परिदृष्य में लंगोट वालानेता सत्ता के शीर्ष पर पहुॅंचने की कल्पना करता है तो उसकी नादानी ही कही जायेगी। और निसंदेह श्री गुप्ता लंगोट वाले नेता हैं, जिन्होंने जन कल्याण में अपनी पूरी जवानी कुर्बान कर दी क्योंकि उन्हें भ्रम रहा है कि लोहिया-जय प्रकाश के आदर्शाें की पथगामी जदयू लंगोट वालों की ही पार्टी है तथा वे ही देश के कर्णधार बनेगे। परन्तु तथ्य है कि भाजपा के साथ सत्ता सुख का भोग करने वाले जदयू के शीर्ष नेता अब लोहिया के समाजवाद के मायाजाल से मुक्त हो चुके हैं। अब तो वे अम्बानी, टाटा या अमेरिकी मल्टी नेशनल कम्पनियों के बाजारवाद के चायनीज सिल्क से बने ंकच्छा के धारक बन बैठे हैं। अतः यहअप्रत्याशित घटना ही होगी कि नीतीश जी श्री गुप्ता जैसे खादी लंगोटधारी को टिकट का वरदान दे देते हैं। खैर, यह सत्य है कि अगर श्री गुप्ता को टिकट मिलता है तो वे बिना किसी विवाद या कठिनाई के विजय श्री को पा लेगे।
  परन्तु जानकार बताते हैं कि यह सुखद क्षण श्री गुप्ता के भाग्य में लिखा ही नहीं है। आखिर आजकल कौन लंगोटीवाला कहीं से भी किसी बड़े दल का उम्मेदवार बनाया जाता है। अगरयहीं स्थिति होती तो क्या जदयू का सहोदर भाई राजद बाल्मीकिनगर क्षेत्र से रघुनाथ झा को उम्मेदवार बनाता। क्या राजद को सामाजिक न्याय या नव प्रेमी अगड़ी जाति के किसी स्थानीय माॅं की संतान इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने योग्य नहीं दिखती जो मदारी सदृश्य राजनेता श्री झा को यहाॅं से टिकट देने का संकेत दे दिया है। तो फिर पूर्व रेल मंत्री तथा मुख्य मंत्री के कुर्सी़ पर विराजमान नीतीश कुमार कैसे न किसी श्री झा के सदृश्य मोटे गांठ वाले को टिकट देगे जो श्री झा को उनकी भाषा में ही जबाब दे सके। 
खैर बैद्यनाथ महतो को छोड़कर सभी अन्य स्वघोषित जदयू के भावी उम्मेदवारों के दिलों में संशय का लौ जल रहा है कि टिकट उनको मिलेगा या नहीं। उनकों आशंका है कि कही नीतीश जी अपने पूर्व में किये गये वादे पर अमल करते हुए श्री महतो को ही जदयू की पगड़ी न देदे, भले चुनावी परिणाम जो भी रहे। ऐसी परिस्थिति में अन्य भावी उम्मेदवार चाहेंगे कि किसी दूसरे व्यक्ति को टिकट दिया जाय जो श्री महतो जैसा विवादग्रस्त नेता न हो, जिसकी छवि स्वच्छ हो तथा जिसकी जातीय वोट बैंक भी अन्य उम्मेदवारों से ज्यादा सशक्त हों। 
ऐसा उम्मेदवार तो अभी तक सामने नहीं आ पाया है। परन्तु जदयू में गुपचुप पक रही माघी खिचड़ी की फैलती सुगंध बता रही है कि अन्ततोगत्वा बाल्मीकिनगर का जदयू टिकट मुकुट जिला परिषद अध्यक्ष रेणु देवी के सिर को न सुशोभित करे। रेणु देवी विगत ढ़ाई वर्षों के अपने कार्यकाल में एक गृहिणी से कुशल राजनेत्री के रुप में उभरी हैं। ये अध्यक्ष्ीाय कुर्सी़ से वंचित होने के बाद पुनः उसे हाशिल कर साबित कर दी हैं कि नम्रता, समर्पण तथा कुशल रणनीतिकारों के बल पर राजनीति में शीर्ष पर स्थान बनाया जा सकता है। यह अतिश्योक्ति नहीं होगी अगर कहा जाय कि रेणु देवी आज जिले के सबसे ज्यादा मीड़िया कवरेज पानेवाली तथा सबसे ज्यादा जनसभाओं/कार्यक्रमों में आमंत्रित होने वाली व्यक्ति हैं। इसका स्पष्ट अर्थ है कि हमारे समाज में पुरुषों की अपेक्षा नारियों पर ज्यादा विश्वास किया जाता है। अतः अगर जदयू रेणु देवी को टिकट देता है तो इन्हें बिना ज्यादे परिश्रम तथा धन व्यय किये ही अपार जन समर्थन प्राप्त हो सकता है। इसी क्षेत्र में थारु जनजाति के लोग निवास करते है जिनमें महिलाओं को पुरुष के बराबर ही सम्मान तथा गरिमा प्राप्त होता है। थारु महिलायें तो एक नारी उम्मेदवार को अपनी पलकों पर बिठा लेंगी और रेणु जी की विजय सुनिश्चित कर देंगी।
साथ-साथ यह भी स्मरण रहे कि रेणु देवी विशाल वैश्य समुदाय की कानू जाति से आती हैं। कानू जाति की संख्या इस क्षेत्र में काफी अधिक है जो इनके लिए कवच कुंड़ल सिद्ध होगा। वर्तमान में जदयू के किसी भी भावी उम्मेदवार की अपनी जातीय संख्या बल रेणु जी की जातीय संख्या बल से काफी ही कम है।साथ-साथ अबतक इस संसदीय क्षेत्र के किसी भी विधान सभा क्षेत्र से कोई वैश्य विधायक की कुरसी हासिल नहीं कर पाया है। अतः वृहत वैश्य समुदाय जिसकी संख्या इस क्षेत्र में सबसे अधिक है चाहेगा कि उसका कोई अपना सदस्य संसद पहुॅंच जाय। ऐसी स्थिति में किसी भी दल के उम्मेदवार की तुलना में जिप अध्यक्ष रेणु देवी की जीत की संभावना ज्यादा प्रबल दीख रही है। जानकारों को आशा है कि नीतीश जी अन्य बातों से ज्यादा अपने दल के उम्मेदवार की जीत की प्रबलता पर ज्यादा ध्यान देंगे और ऐसी स्थिति में रेणु देवी ही कहीं बाजी न मार ले जाये तथा अन्य टिकट हेतु कसरत बना रहें पहलवान आॅंखें फाड़े देखते ही न रह जायें। देखे इस क्षेत्र की चुनावी राजनीति क्या मोड़ लेती है! 


पश्चिम चम्पारण . बिहार
  प्रशासन ने आयोजित किया अदभूत खाद-बीज मेला: बकौल पदाधिकारी किसानों हेतु बरदान
  परन्तु कई कहते विक्रेता-कृषि विभाग का खेला
तरंग टीम
विगत नवम्बर माॅंह में जिला कृषि विभाग ने बीज एवं खाद विक्रेताओं का बेमेल विवाह कराकर किसानों के हित के लिए एक अप्रत्याशित मेंला का आयोजन किया। इसका मुख्य लक्ष्य था किसानों को उचित दर पर खाद, खासकरके डी0ए0पी0, प्राप्त हो जाय। क्योंकि चैतरफा शिकायत थी कि खाद विक्रेता इसे मनमाने मूल्य पर, यानि कि बोरा डी0ए0पी0 पर कम से कम 200 रुपया अधिक वसूल रहे हैं। शायद कृषि विभाग तथा जिला प्रशासन किसानो को इस आतंक से मुक्त करने के ध्येय से ही बेतिया, बगहा तथा नरकटियागंज में नवम्बर 10 से 30, 2008 तक कृषि मेला का आयोजन किया। इसका माॅनिटरिंग खुद जिला पदाधिकारी दिलीप कुमार ने किया।
  इस मेला से जरुर किसान लाभान्वित हुए क्योंकि उन्हें खाद के लिए प्रति बोरा 200.250 रुपये अधिक नहीं देने पड़े, हाॅं प्रशासन की सहमति से खाद विक्रेताओं ने प्रति बोरा मात्र 10.15 रुपया उचित मूल्य से ज्यादा ढूलाई-पोलदारी खर्च के नाम पर जरुर वसूला। कृषि विभाग के सूत्रों के अनुसार इन तीनो अनुमंड़लों के मेलों में लगभग 15 हजार बोरा खाद, खासकर आइ0पी0एल0 तथा इफको का डी0ए0पी0, किसानों को उपलब्ध कराया गया। इसके अतिरिक्त जिंक सल्फेट तथा पोटाश आदि भी उचित दर पर ही उपलब्ध कराये गये। अगर इन मेलों का आयोजन नहीं होता तो खाद विक्रेता कम से कम प्रति बोरा 200 रुपया के हिसाब से किसानों से लगभग 30 लाख रुपये जरुर दिन दहाड़े लूट लेते। किसानों को इतने धन डकारने की मजबूरी होती अन्यथा उनकी रवी की खेती चैपटहो जाती। इसके लिए जिला पदाधिकारी दिलीप कुमार तथा जिला कृषि पदाधिकारी शैलेश कुमार धन्यवाद के पात्र हैं।
 परन्तु कुछ किसान नेता तथा कृषि के जानकार पूछते हैं कि क्या प्रशासन केवल खाद विक्री हेतु इन मेलों का आयोजन नहीं करा सकता था? आखिर क्या मजबूरी थी कि खाद तथा बीज का यह संयुक्त स्वयंवर मेला आयाजित कराना पड़ा ? सर्वविदित है कि कालाबाजारी का कलंक खाद विक्री पर ही लगता है। गेहू या अन्य बीजों की कालाबाजारी तो आजतक सूनने को भी नहीं मिला है। केन्द्र सरकार संभवतः वर्ष 2007 से 500 रुपया प्रति क्विंटल गेहू बीज पर अनुदान देती रही है। प्राप्त आंकड़ो के अनुसार वर्ष 2007 की गेहू बुआई के दौरान इस जिले के अधिकृत बीज विक्रेताओं ने करीब 5000 बैग यानि 40 किलो प्रति बैग के हिसाब से 2000 क्विंटल गेहू बीज किसानों से बेचा था। इस प्रकार वर्ष 2007 में किसानों को 10 लाख रुपयों की राहत केन्द्रीय अनुदान के वजह से प्राप्त हुयी थी।परन्तु बीज प्राप्त करने में किसी भी किसान को कोई परेशानी होने की सूचना या शिकायत वर्ष 2007 में सुनने को नहीं मिली थी। 
वैसे यह चर्चा जरुर हुयी थी कि बीज विक्रेताओ ने वास्तव में 2000 क्विंटल गेहू बीज नहीं बेचे थे। और कुछ हद तक कागजी खेल हुआ था जिससे वे बिना बीज बेंचे ही तथा बेचने की प्रक्रिया में होने वाली परेशानियों को बिना झेले सरकार के अनुदान राशि यानि 500 रुपया प्रति क्विंटल हड़प लिया जाय। निसंदेह यह सब कृषि विभाग के आकाओं के साठ-गाॅंठ के बिना संभव हो ही नहीं सकता। 
  जानकार बताते हैं कि जिला पदाधिकारी ने इन मेलों में खाद-बीज विक्री का बेमेल विवाह कराकर बीज विक्रेताओं के लिए आमदनी का पीटारा खोलने में जाने अनजाने मदद कर दिये। यह सब जिला पदाधिकारी कृषि विभाग के पदाधिकारियों के सलाह पर ही किये होगें। और यह सर्वविदित है कि कृषि विभाग के लोगों के दिल में किसानों के प्रति कितना प्रेम भरा है। अगर वास्तव मे इनके दिलों में किसानों के लिए थोड़ी भी रहम होती तो क्या खाद विक्रेता खादों की कालाबाजारी करने का साहस कर पाते। 
  जानकारों के अनुसार इन मेलों में खाद-बीज की संयुक्त विक्री, यानि एक बैग खाद उचित मूल्य पर उसी को मिलेगा जो एक बोरा गेहू का बीज लेगा, का निर्णय लेने के पीछे एक मात्र ध्येय यही था कि बीज पर प्राप्त केन्द्रीय अनुदान की राशि को ज्यादा से ज्यादा हड़पा जा सके। वैसे कृषि विभाग के शीर्ष पदाधिकारी तर्क देते हैं कि ऐसा करने का मुख्य लक्ष्य था कि किसानों को ज्यादा से ज्यादा सर्टिफायड़ बीज लगाने के लिए प्रेरित किया जाय जिससे की गेहू उत्पादन में वृद्धि लायी जाय क्योंकि अच्छे बीज से ही अच्छा फसल होता है।
  प्रश्न उठता है कि क्या इस जिले के किसान इतने मूर्ख हैं कि वे उत्तम बीज का उपयोग करने से भागते हैं? ज्ञातव्य हो कि विगत चार दशकों से यहाॅं के किसान नये नये उत्तम कोटि के बीजों का उपयोग करते आ रहे हैं तथा मौसम अनुकूल रहने पर यहाॅं गेहूं का उत्पादन भी काफी अच्छा होता रहा है। सरकारी अनुदान नहीं रहने पर भी यहाॅं के किसान विभिन्न जगहों से प्रति वर्ष कम से कम 1000 क्विंटल गेहू बीज प्राप्त कर वर्षों से बुआई करते रहे हैं। 1000 क्विंटल का अर्थ हुआ कम से कम 1000 हेक्टेयर खेत में नये बीजों की बुआई जिससे औसतन 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज के हिसाब से कम से कम 25,000 क्विंटल गेहंू की पैदावार होना। और इस कुल उपज को कम से कम 15,000 क्विंटल दूसरे वर्ष किसान बीज के रुप में करते हैं, जो वे काफी सस्ते दर पर अपने ग्रामीण किसानों से प्राप्त करते हैं, ज्यादा से ज्यादा 11-12 रुपया किलो की दर से, जबकि दूकानों पर उन्हें किसी भी हाल में 20 रुपया से कम में नहीं ही मिल पाता है।
  ज्ञातव्य हो कि एक बार सर्टिफायड बीज लगाने के बाद उससे पैदा हुए बीज को कम से कम अगले दो वर्षों तक बीज के रुप में उपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार किसान प्रत्येक तीसरे वर्ष स्वतः बिना किसी के दबाव या प्रेरणा के ही नये सर्टिफायड बीजों का उपयोग करते रहते हैं। आखिर उन्हें अपने पेट की चिन्ता है। और पेट की चिन्ता नौकरशाहों की सलाह से ज्यादा प्रभावकारी होती है।
ऐसी पृष्ठभूमि में अब प्रश्न उठता है कि आखिर किसानों को खाद के साथ बीज भी खरीदने के लिए क्यों बाध्य किया गया? कृषि विभाग से प्राप्त आकड़ों के अनुसार इन मेलों सहित बाद में भी जारी विक्री के दौरान पूरे जिले में इस रवी बुआई हेतु करीब 8,000 क्विंटल गेहॅंू बीज की विक्री अनुदानित दर पर हुयी है।
  इसका अर्थ है कि इस रवी मौसम में यहाॅं के किसानों को 40,00,000/-यानि चालीस लाख रुपये का अनुदान मात्र गेहॅंू बीज पर प्राप्त हुआ है। गेहॅंू बीज का इतने बडे़ पैमाने पर विक्री ही अपने आप में एक विकराल प्रश्न खड़ा करता है। विगत वर्षों में कभी भी बीज दुकानदारों ने इतनी मात्रा में किसी एक वर्ष मे गेहॅंू बीज की विक्री नहीं की हैं। ऐसे तो इतनी भारी मात्रा में गेहॅंू बीज की विक्री तो कृषि विभाग तथा जिला पदाधिकारी का पीठ थपथपवाने के लिए एक तरह से प्रमाणिक साक्ष्य है। परन्तु पुनः प्रश्न उठता है कि कभी भी इतनीमात्रा में गेहॅंू बीज नहीं बेचे जाने के उपलब्ध इतिहासके मद्देनजर इस जिले के बीज दुकानदार इतनी मात्रा में पहले से ही बीज कैसे मंगा लिए थे। किसी भी प्रमाणिक बीज का दाम 2000 रुपये प्रति क्विंटल से कम नहीे है। इसका अर्थ है कि दुकानदारों ने 8,000 क्विंटल गेहॅंू बीज के लिए कम से कम 1.5 करोड़रुपये की पूॅंजी तो जरुर लगायी होगी। क्या वे वास्तव में ऐसा किये होंगे, खासकरके पूर्व के वर्षों की विक्री के आंकड़ो का ख्याल करते हुए। जानकारों का आरोप है कि गेहॅंू बीज की इतनी विशाल मात्रा में विक्री होना विश्वास करने वाली बात है ही नहीं। वास्तव में इन कृषि मेलों में पर्दे के पीछेबहुत कुछ हुआ। दलालों ने सैकड़ों लोगों को कुछ रुपये के लालच में खड़ा कर जाली भूमि रसीदों के आधार पर खाद-बीज प्राप्त करने का षड़यंत्र रचा। खाद तो प्राप्त कर लिए गये, परन्तु बीज विक्री मात्र कागज पर कुछ लेन देन कर हो गयी। प्रायःकिसानों को जिस दिन खाद-बीज का रसीद कटता था, उसी दिन उन्हें बीज नहीं मिलता था, जबकि खाद मिल जाता था। और बाद में बीज की कागजी विक्री दिखाकर खेल खत्म कर दिया। इन दलालों को तो खाद से मतलब था जिसपर वे मनचाहा रुपया वसुल सकते थें। और बीज दुकानदारों को मतलब था कागज पर ही ज्यादा से ज्यादा विक्री दिखाने से जिससे कि उन्हें बिना पॅंूजी लगाये सरकारी अनुदान की राशि मिल जाय। आखिर यह सत्य नहीं है तो फिर ये बीज दुकानदार कैसे इतने बीज को मूल उत्पादकों से एक दो दिनों में प्राप्त कर लेते थें ? इस आरोप को मनगढ़ंत कहा जा सकता है। परन्तु इसकी सत्यता जानने हेतु आवश्यक है कि सरकार एक स्वतंत्र जाॅंच दल गठित कर यह जाॅंच करावे कि ये दुकानदार क्या वास्तव में मूल बीज उत्पादकों से ही सब बीज प्राप्त किये या कागजी खेल खेले, या फिर स्थानीय गैर प्रमाणित गेहॅंू बीजों को प्रमाणित बीज बोरों में भर कर किसानों को उपलब्ध करा दिये। इस जिले में एन0एस0सी0,इन्ड़ो-गल्फ, टी0एस0सी0, गंगा कावेरी, बी0आर0बी0एन0, दयाल सीडस आदि बीज उत्पादकों के बीज बेचे गये हैं। एन0एस0सी0 ने सीधे अपना विक्री केन्द्र खेालकर बीज बेचा। परन्तु अन्यों के बीज उनके डीलरों ने बेचा। 
  अतः आवश्यकता है कि इन उत्पादकोंके विक्री दास्तवेजों को जाॅंच कर यह पता लगाया जाय कि प0 चम्पारण के बीज दुकानदार कितनी मात्रा मे उनसे बीज प्राप्त किये। तब ही इस रहस्यमय स्थिति से उबरा जा सकता है। परन्तु क्या सरकार या जिला प्रशासन के लिए इसकी जाॅंच करानी संभव हो पायेगी। आखिर, यह सरकारी अनुदान की बडी राशि को डकारने का खेल है। इसमें छोटे बडे सभी संलिप्त हो सकते हैं!

  अपनी बातें: डाॅ. पी. सी. दूबे

  सबों को गणतंत्र दिवस की बधाईयाॅ  

कम से कम 26 जनवरी हमारे देश के कर्णधारो को शायद याद दिलाता है कि हमारा भारत महान के साथ-साथ एक गणतंत्र भी है। यानि यहाॅं जनता का राज है। परन्तु काश हमारे इन कर्णधारों को यह पूरे वर्ष याद रहता कि हमारा देश वास्तव में एक गणतंत्र है तथा वे इसके रक्षक तथा सेवक हैं। इसी हेतु राज्य के खजाने से उनकी सभी सुख-सुविधाओं की व्यवस्था होती है। अगर ऐसा होता तो देश तथा समाज का सबसे कमजोर व्यक्ति भी सिर उठाकर कहता कि वह भी आजाद है, वह एक मानव की सभी मर्यादाओं के साथ जीता है, भले ही उसे कुछ आर्थिक, प्राकृतिक कष्ट क्यों न होते हो।
  पर क्या ऐसी स्थिति आज इस देश/राज्य में है? ऐसा लगता है कि गणतंत्र दिवस अब मात्र राष्ट्रपति, राज्यपाल तथा विभिन्न संस्थाओं के प्रमुखों के लिए एक पारम्परिक पर्व/प्रथा के निर्वाह जैसा ही रह गया है। यह वैसा ही हो गया है जैसा कि समाज में अब ज्यादातर संतानें अपने वृद्ध माता-पिता को तो उनके जीवन काल में भर पेट भोजन तक नहीं देते, परन्तु उनके मरने पर सैकड़ों लोगों को भोजन कराते हैं, सर मुड़ाते हैं तथा दान करते हैं जिससे कि मृत आत्माओं को सुख-शांति मिले। 
  ठीक ऐसी ही स्थिति हमारे गणतंत्र की हो गयी है। साल भर हमारे देश, शासन, प्रशासन के कर्णधार आम गरीब, दलित, आदिवासी नागरिकों के खून पीने जैसा कुकृत्यों में संलिप्त रहते हैं, और 26 जनवरी को सिर पर टोपी लगाकर तिरंगा को पूरे तामझाम तथा सम्मानपूर्वक फहराते हैं। क्या हमारा गणतंत्र तिरंगों में ही सिमट कर रह गया है? क्या हमारे आदिवासियों, दलितों, गरीबों तथा महिलाओं के जीवन में यह तिरंगा रोज नहीं लहराना चाहिए?
  इस अंक में हमने कुछ ऐसे रिपोर्ट प्रकाशित किये है जिससे स्पष्ट हो जायेगा कि गरीबों, दलितों, महिलाओं तथा जनजातियों के लिए गणतंत्र मात्र मृगमरीचिका बनकर रह गया है। सरकार गरीब महिलाओं को सशक्त बनाने हेतु करोड़ों रुपये पानी के तरह बहा रही है, पर वे रुपये हमारे नरकटियांगंज प्रखंड की गरीब महिलाओं को दर्शन क्यों नहीं दे रहे हंै? दलितों तथा ग्रामीण बच्चों की शिक्षा हेतु सरकार नित प्रतिदिन बड़ी बड़ी घोषणायें कर रही है। पर हमारे रिपोर्ट बताते हैं कि यह सब एक नाटक है। तथा संबंधित महिलायें एवं बच्चे महाकवि जानकीवल्लभ शास्त्रि की पंक्ति ‘‘ उपर ही पी जाते हैं जो पीने वाले है, ऐसे ही जीते हैं जो जीने वाले हैं‘‘ को अपने जीवन में जीवन्त होते देख जीने के लिए बाध्य हैं।

हमने थरुहट में व्याप्त अग्रेजों के जमाने के पुलिसिया तांड़व का भी जिक्र किया हैं। हमारे थारु भाई आज भी ऐसे आतंक के साये में जीने के लिए बाध्य क्यों हैं, जबकि हमारी सरकार, हमारा प्रशासन सुबह शाम दलितों, आदिवासियों के उत्थान तथा कल्याण की ही माला जपता रहता है। अमरेश कुमार के आवेदन पर चम्पारण रेंज की डी0आई0जी0 महोदया ने जरुर कार्यवाही शुरु की हैं। पर प्रश्न उठता है कि हमारे थाना स्तरीय पदाधिकारियों का अंगे्रजी संस्कार कब बदलेगा? अगर यह संस्कार नहीं बदलेगा, तो गणतंत्र अर्थहीन ही रहेगा।
  तराई तरंग का ईश्वर से प्रार्थना है कि वे हमारे गणतंत्र के रक्षकों तथा सेवकों में गणतंत्र के संस्कार भर दे, अन्यथा हमारा गण्तंत्र दिवस एक रस्म अदायगी के सिवाय कुछ नहीं रह जायेगा।  


  राजनीतिक दल चंदे के धंधे में मस्त
  बिहार-उत्तर प्रदेश अव्वल

अफरोज आलम ‘साहील’
  दिल्ली से
  देश के लगभग एक हजार राजनीतिक दल अपने पार्टी फन्ड के नाम पर प्रतिवर्ष अरबों रुपये दान स्वरुप वसूल रहे हैं। परन्तु, ज्यादातर द अपने चंदे का व्यौरा देने से कतरा रहे हैं। उत्तर भारत के राजनीतिक दल तो इस मामले में अव्वल ही हैं।
  कांग्रेस की नेतृत्व वाली यू0पी0ए0 गठबंधन सरकार भले ही सूचना के अधिकार हेतु अधिनियम बना अपनी पीठ थपथपाते रहे, परन्तु इस कानून के निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले कई प्रमुख घटक दल दान से प्राप्त घनराशि के संबंध में किसी प्रकार की पारदर्शिता दिखाने से भाग रहे हैं।
  लेखक ने गत् वर्ष इस संबंध में यानि पार्टियों के चन्दे के धन्धे के बारे में सूचना के अधिकार के तहत जब चुनाव आयोग से जानकारियाॅं मांगी तब पता चला कि आयोग के पास पंजीकृत कुल 920 राजनीतिक दलों में से केवल 21 पार्टियां ही ऐसी हैं जो अपने चन्दे और आमदनी से संबंधित व्यौरा आयोग को बराबर सौंप रही हैं। बाकी सब व्यौरा देना है इसकी परवाह नहीं करते। व्योरा न देने वाले दलों के महारथियों में राजद के लालू प्रसाद यादव, लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान, झारखझड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन, बहुजन समाज पार्ट की मायावती जी आदि प्रमुख हैं।
ज्ञातव्य हो कि वर्ष 2003 में रेप्रेजेंटेशन आॅफ पीपुल्स एक्ट 1951 में एक संशोधन के तहत यह नियम बनाया गया कि सभी राजनीतिक दलों को धारा 29-स की उपधारा-1 के तहत फार्म 24-ए के माध्यम से चुनाव आयोग को यह जानकारी देने होंगे कि उन्हें प्रत्येक वित्तीय वर्ष के दौरान किन.किनव्यक्तियों और संस्थानों से कुल कितना चन्दा मिला। हालाॅकि राजनतिक दलों को इस नियम के तहत 20 हजार से उपर के चन्दों की ही जानकारी देने होते हैं, पर चुनाव आयोग से प्राप्त सूचना के मुताबिक वर्ष 2004 से 2007 के वित्तीय वर्षों में केवल 21 राजनीतिक दल ही यह व्योरा आयोग को देने का कष्ट उठाएॅ हैं। वैसे प्रति वर्ष के आधार पर मात्र 16 पार्टियाॅ ही एक वित्तीय वर्ष में चुनाव आयोग को अपने चन्दा का व्योरा सौंप रही हैं।
 परन्तु कानून के तहत दुर्भाग्यवश यह प्रावधान नहीं है कि आयोग के पास पंजीकृत सभी दलों को चन्दे से संबंधित जानकारी सौंपने की बाध्यता ही होगी। इसका लाभ उठाकर राजनीतिक दल अपने चन्दे के धन्धे पर पर्दा डालने में सफल होतें हैं और बेचारा चुनाव आयोग कुछ नहीं कर पाता। 
  जानकारो का कहना है कि कुछ राजनीतिक दल चन्दे तो जरुर लेते हैं पर उसका उपयोग राजनीतिक कार्यो के बदले शेयर या जवाहरात आदि खरीदने में कर रहे हैं। अतः यह प्रजातंत्र के हित में है कि इस बात की जाॅच की जाय की राजनीतिक दल किस प्रकार से अपने चन्दे का उपयोग कर रहे हैं। वैसे प्रजातंत्र के पूरजोर वकालत करने वाले कई हस्तियों का कहना है कि जो भी राजनीतिक दल अपने चन्दों का दुरुपयोग कर रहे हैं उनके खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत कार्यवाही की जानी चाहिए। यह निसंदेह विडम्बना है कि चुनाव आयोग के पास राजनीतिक दलों के काम काज, खर्च और पारदर्शिता तय करने के लिए कोई प्रभावी अधिका नहीं है। यह निसंदेह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक कलंक है।

  भारत-नेपाल
 विगत दशक में भारत ने नेपाल को दिये 7 अरब अनुदानः क्या यह वास्तविक लाभार्थियों तक पहुंचा भी?  
तरंग टीम
  भारत नेपाल को अपना निकटतम पड़ोसी ही नहीं, बल्कि सहोदर भाई मानता है। परिणामस्वरुप भारत की हमेशा पहल रही है कि नेपाल के आर्थिक विकास में ज्यादा से ज्यादा सहायता दी जाय। 1950 की भारत-नेपाल संधि के समय से ही भारत नेपाल की प्रगति के लिए आकाश पाताल एक करता रहा है। अरबों रुपयें अनुदान में दिये हैं। फिर भी नेपाल के प्रबुद्ध नागरिक तथा भारत-नेपाल की आर्थिक सहयोग प्रक्रिया को नजदीक से देखने और जानने वालों का दावा है कि भारत सरकार का नेपाल को मदद देने की पवित्र मंशा के बावजूद नेपाल को दिये गये अकूत धन का कुछ खास लोगों द्वारा बंदर बाॅंट कर लिया जाता रहा है तथा विकास की कागजी खानापूर्ति की जाती रही है। यानि भारतीय दूतावास के निचले स्तर से लेकर शीर्ष पर बैठे पदाधिकारी नेपाली सरकारी एवं गैर सरकारी दलालों से सांठ गाठ कर भारत द्वारा प्रदत राशि को ड़कारते रहे हैं। 
  भारतीय राजनयिकों के बारे में काठमांडू स्थित एक भारतीय पत्रकार कहते हैं कि इनको अपने तीन साल के कार्यकाल में तीन स्तरों से गुजरना पड़ता हैं: पहला वर्ष लर्न यानि सीखना, दूसरा वर्ष अर्न यानि कमाना तथा तीसरा वर्ष रिटर्न यानि देश वापस हो जाना। इसके अतिरिक्त इन राजनयिकों का कोई कार्य न भारत हित में, न नेपाल की गरीब जनता के हित में होता है। आश्चर्य तो इस बात की है कि भारत द्वारा दी गयी विशाल सहायता राशि का उपयोग विरले ही नेपाल के तराई यानि मधेश क्षेत्र में विकास कार्य सम्पन्न कराने में होता हो। 
  जानकारों के अनुसार पूरी राशि का करीब 90 प्रतिशत पहाड़ी इलाकों में खर्च करने की दावा की जाती रही है, जबकि भारतीय मूल के नेपाली मधेशियों के लिए बहुत ही कम खर्च किये गये है। इसका कारण कदापि यह नहीं रहा है कि भारतीय राजनयिक पहाड़ी मूल के लोगों की गरीबी से ज्यादा द्रवित होते रहे हैं,बल्कि यह कि पहाड़ों में किये गये कागजी कार्यों का सत्यापन असंभंव रहा है, खासकर विगत दश वर्षों में जब वहाॅं माओवादियों का गुरिल्ला साम्राज्य कायम रहा। परन्तु नेपाल की तराई में किया गया कोई भी कागजी विकास कार्य का आसानी से भंड़ाफोड़ होने का खतरा बना रह सकता है। अतः भारतीय दूतावास में स्थित नेपाल के उद्धारकत्र्ता पहाड़ों के प्रति असीम कृपा प्रदर्शन करते रहे हैं तथा बड़े ही आराम से विकास राशि को बिना ढ़कारे ही ड़कारते रहे हैं।
  दिल्ली स्थित तराई तरंग के सम्पादकीय सलाहकार अफरोज आलम ‘साहिल‘ द्वारा सूचना अधिकार अधिनियम के तहत प्राप्त आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1998 से 2008 के बीच भारत ने नेपाल को करीब 700 करोड़ यानि 07 अरब रुपये विकास सहायता राशि मद में दिया है। परन्तु स्मरण रहे कि इस अकूत राशि का विकास कार्यों में खर्च नेपाल सरकार के लोगों द्वारा नहीं किया जाता, वरन भारतीय दूतावास के राजनयिकों के इशारे पर होता है। अतः इन भारतीय विभूतियों को मलाई चाभने का काफी अवसर मिल जाता है। वैसे भी यह राशि अगर नेपाल सरकार के पदाधिकारियों के हाथों में भी जाती तो इसका परिणाम दूसरा कुछ नहीं होता। अतः भारतीय दूतावास के लोग अच्छा ही करते हैं कि भारत का धन किसी तरह से पुनः भारत वापस ले आते हैं।  

लौरिया प्रखंड
  महीनों से विद्यालय बंद, मध्यान भोजन ठप
  प्रशासन अलख जगाने में व्यस्त, बच्चे बकरी चराने में मस्त

रत्नेश गौतम
प्रमुख संवाददाता, नरकटियागंज अनुमंडल
  लौरिया प्रखंड के साठी ईलाके स्थित बहुअरवा पंचायत अंतर्गत बहुअरवा इंदू टोला में स्थापित सरकारी प्राथमिक विद्यालय विगत वर्ष के जून माॅंह से बंद पड़ा है। नतीजन करीब 700 जनसंख्या वाले दलित बहुल इस गाॅंव के बच्चे आज बकरियाॅं चराने तथा सड़कों पर निरुदेश्य भटकने को मजबूर हैं। परन्तु इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। वैसे शिक्षा विभाग सोया नहीं है और ‘‘घर-घर अलख जगायेंगे, हम बदलेंगे जमाना’’ की राग अलापने के अभियान में, कागज पर ही सही, तन, मन तथा धन से व्यस्त है, आखिर इसके आकाओं को तो शिक्षा समृद्धि हेतु बह रही अरबों रुपये की गंगोत्री में तो डूबकी लगाना है न। अगर यह सत्य नहीं होता तो फिर इंदू टोला के बच्चे 6 माॅंह से अकारण विद्यालय बंदी का दंश क्यों झेलते?
उक्त गाॅव के वृजबिहारी प्रसाद ‘तराई तरंग’ को बताते हैं कि सितम्बर 2006 के पहले उनके गाॅंव के बच्चे दूर दराज गाॅंवो के विद्यालयों में पढने जाते थे।परन्तु गाॅववालों तथा स्थानीय मुखिया समदा खातुन के प्रयास से विद्यालय संचालन हेतु 17 सितम्बर, 2006 को विद्यालय शिक्षा समिति का गठन कर गाॅव में स्थित पोखरा के किनारे खुले आकाश में विद्यालय चलना प्रारम्भ हो गया। ग्रामीणों में सरकार के प्रति विश्वास जगीं। गाॅव के दलितों को लगा कि सरकार उनके कल्याण के लिए सिर्फ घोषणायें ही नही करती, बल्कि उसे धरती पर भी उतारती है।
  खैर गाॅव के दलितो़ तथा अन्य जातियों के बच्चे विद्यालय आने लगे और प्रति दिन इस नारा कि ‘‘ आध रोटी खाएँँगे, फिर भी पढ़ने आयेगें’’ के साथ पढ़ाई यज्ञ में जुटने लगे। इसी क्रम में बरसात समाप्त हो गया और शरद ऋतु आ गया। ग्रामीणों को यह चिंता सताने लगी कि आखिर जाड़े में बच्चे खुले आकाश के नीचे पढ़ेगे कैसे?
फर शुरु हुआ विद्यालय भवन निर्माण कराने की पहल और अंततोगत्वा यह प्रयास सफल हुआ। तत् पश्चात पोखरा किनारे ही अवस्थित गैरमजरुआ मालिक भूमि में 15 डीसमिल भूखंड को चयन कर नरकटियागंज भूमि सुधार उप समाहर्ता तथा अनुमंडलाधिकारी ने अग्रेतर कार्यवाही हेतु लौरिया के अंचलाधिकारी को भेज दिया। अंचलाधिकारी महोदय ने भी त्वरित निष्पादन हेतु भवन निर्माण कार्य कराने का आदेश ज्ञापांक -76, दि0 09.02.07 को प्रखण्ड शिक्षा पदाधिकारी, लौरिया को दे दिये। परन्तु इस आदेश का कोई प्रतिफल आज तक नहीं निकला है, जबकि जिले में अन्य जगहो पर भवन पर भवन बनाये जा रहे है।
बच्चें जाड़े के भी प्रहार को सहकर पढ़ाई जारी रखे। उन्हें आशा थी कि जल्द ही यह दलित प्रेमी सरकार इस दिशा में कोई न कोई ठोस कदम अवश्य उठायेगी। परन्तु उनकी आशा पर पानी फिरता ही गया। और विद्यालय को पूर्ण ग्रहण उस समय लगा जब पहली बार यहाॅं मार्च 2007 से मध्यान भोजन कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। यह कार्यक्रम चल ही रहा था तभी पता चला कि इसमें गडबडी हो रही है और विद्यालय के प्रधान शिक्षक, विशुनदेव हजरा, खादान तथा राशि का गबन कर रहे है। ग्रामीणों ने निर्णय लियाकि इस संदेह के संबंध में श्री हजरा से ही जानकारी ली जाय। तब वृजबिहारी साह तथा विद्यालय शिक्षा समिति के सचिव ने बी0आर0सी0 लौरिया जाकर प्रधान शिक्षक श्री हजरा से अपने संदेह से अवगत कराये। श्री हजरा कोई समुचित जबाब नहीं दे सके, बल्कि हॅंसते-हॅंसते उनकी बात टाल गये। परन्तु श्री हजरा से मध्यान भोजन में हो रही गबन की शिकायत जरुर कुछ रंग लायी। मई07 आते ही बच्चों को मध्यान पोषाहार मिलना ही बन्द हो गया। कुछ समय पश्चात विद्यालय में पठन पाठन ही बन्द हो गया। बैठक और यह निर्णय लिया जाना कि जिला पदाधिकारी से मिलकर विद्यालय में हो रहे कुकृत्यों की जानकारी दी जाय और ऐसा हुआ भी।ग्रामीणों ने अपना पहला आवेदन 14.08.08 को जिलाधिकार को दिया। इसमें पोषाहार गबन व विद्यालय बंद होने की जानकारी गाव के समाजसेवी बृजबिहारी साह, शि0 समिति अध्यक्षा संगीता देवी, गा्रमीण बुधई पटेल, विनय कुमार, टेणी मियां, भीमल हजरा आदि के द्वारा लिखित रुप में दी गयी। फिर दूसरा 11.09.08 को, तीसरा 21.10.08 को, परन्तु सभी आवेदन सरकारी कुड़ेदान का आहार बन गया, ऐसा ग्रामीणों को प्रतीत हो रहा है। 
  यह निसंदेह दलितों तथा अल्प संख्यकों के लिए शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था करने का ढोल पीटने वाली नीतीश सरकार की पोल खोलने वाली घटना है। अन्यथा जिला पदाधिकारी ग्रामीणों के आवेदन पर कार्यवाही जरुर करते, वे इस पर कुंभकर्णी चादर ओढ़कर नहीं सोते तथा शिक्षक पोषाहार के साथ कदापि चंपत न होते।
उपरोक्त आवेदकों का यह भी आरोप है कि वे स्थानीय मुखिया के पास भी कई बार गये, लेकिन उनके द्वारा भी कोई सार्थक पहल नहीं की गई, बात आई ै, गई जैसी हो गयी। ग्रामीणों का कहना है कि सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि विद्यालय स्थापना की तिथि की भी जानकारी किसी को नहीं है। वृजविहारी साह जो इस कुव्यवस्था के विरुद्ध लड़ाई लड़ने में जुटे हैं का कहना है कि अब हार थक कर वे सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत जिला शिक्षा अधिक्षक से इस संबंध में जानकारी मांगे हैं, देखना है, सरकार का यह कानून भी सरकारी महकमा मानता है या नहीं। परन्तु वे अत्यन्त आहत हैं कि उनके गाॅव के बच्चें विद्यालय बन्द होने के पश्चात पुनः बकरी चराने के अपने पुराने धन्धे में जुट गये। शायद सरकार की भी यहीं मंशा है कि दलितों तथा गरीबों के बच्चें पढ़ लिख जायेंगे तो फिर बकरी कौन चरायेगा और बड़े नेताओं तथा साहबों को अच्छे खस्सी का माॅंस खाने को कैसे मिलेगा। आखिर सरकार हाथी सदृश्य होती है, जिसके खाने के दांत अलग तथा दिखाने के दांत अलग होते हैं।  

  नरकटियागंज प्रखंड़  
  बैंक प्रबंधक की मनमानी जोरों पर, 
  त्रस्त हैं स्वयं सेवी समूहों की गरीब महिलायें !

योगेन्द्र प्रजापति
संवाददाता, नरकटियागंज प्रखंड़ 
राज्य एवं केन्द्र सरकारों का पूरजोर प्रयास है कि दूर दराज गांवों की सबसे कमजोर महिलाओं को भी आर्थिक दृष्टिकोण से अपने बाहुबल के सहारे जीवन यापन करने हेतु सशक्त किया जाय। दान या अनुदान न देकर उन्हें आसान किस्तों तथा कम व्याज पर बिना कोई सुरक्षा राशि लिए कर्ज दिया जाय तथा उन्हें विभिन्न प्रकार के रोजगारों से संबंधित प्रशिक्षण देकर सक्षम बना दिया जाय जिससे वे छोटे छोटे धन्धे शुरु कर अपना तथा अपने परिवार का पेट तो पाले ही, साथ-साथ कर्ज देने वाले ग्रामीण इलाकों के बैंकों की भावी रीढ़ की हड्डी भी बन सके। सरकारों का यह प्रयास आन्घ्र प्रदेश में सफलीभूत हुआ है। बिहार में भी कहीं कहीं सफल हुआ है। बिहार अपेक्षित सफलता न मिलने के लिए सरकार के जिम्मेदार पदों पर आसीन पदाधिकारी तो हैं ही, वास्तविक दोषी तो संबंधित बैंक पदाधिकारी ही हैं जो गरीब महिलाओं को कर्ज देने हेतु सरकार द्वारा दी गयी अकूत राशि को भी देने से सौ कोस दूर भागते हैं। कारण रहस्यमय लगता है। सर्वविदित है कि गरीब महिलायें कर्ज चुकाने में सबसे आगे रहती हैं। फिर भी बैंक इनके साथ सौतेला व्यवहार क्यो करते हैं? क्या इसलिए कि ये गरीब प्राणी इनके पाॅकेट गरम नहीं कर सकती?यह निसंदेह बैंको के लिए एक यक्ष प्रश्न है जिसका जबाब इन्हें देना होगा, अन्यथा उनके लिए इस कलीयुग की दैविक अवतार रुपी महिलाओं के क्रोध की अग्नि को सहना कठिन हो जायेगा।
  फिर भी इसकी परवाह, खासकरके नरकटियागंज प्रखंड़ के केहुनिया ग्राम स्थित, सेन्ट्रªल बैंक आॅफ इन्ड़िया शाखा को तो कदापि नहीं है। ज्ञातव्य हो कि इस प्रखंड के़ अंतर्गत परोरहां पंचायत के ग्राम परोरहां में गठित स्वयं सहायता -ज्योति महिला विकास समिति को एस0जी0एस0वाई0 योजना के तहत डी0आर0डी0ए0 से रिभौलभिंग फॅंड की प्राप्ति 15.11.06 को ही हो गई, परन्तु अभी तक उपरोक्त बैंक के शाखा प्रबंधक द्वारा समूह को स्वरोजगार हेतु मैचिंग शेयर नहीं दी गयी है। समूह के पदाधिकारीगण जानकी देवी, विमला देवी व सुदामा देवी ‘तराई तरंग’ को बताती हैं कि उक्त ऋण हेतु उपरोक्त बैंक के शाखा प्रबंधक उन्हें दर्जनों बार बैंक बुला चुके हैं, परन्तु अभी तक ऋण का दर्शन तक न हो सका है, जिससे कि वे कोई स्वरोजगार कर सके जबकि उन्हें विभिन्न रोजगारों हेतु समुचित प्रशिक्षण भी प्राप्त है। उनका आरोप हैं कि बैंक जाने पर मुख्य शाखा प्रबंधक कहते है कि सहायक शाखा प्रबंधक उनके गाॅंव में जाकर समूह का जायजा लेंगे, परन्तु चार बार समय देने के बाद भी सहायक शाखा प्रबंधक, अशोक सिंह, उनसे, यानि समूह की महिलाओं से, न कभी मिले और ना ही उनका कार्य ही किये। समय देकर वे उनके गाॅव जरुर आये लेकिन समूह की जांच हेतु नहीं, बल्कि के0सी0सी0 के लिए।यही व्यथा ग्रामीण महिला विकास समिति -परोरहां दुसाध टोली की है। समूह अध्यक्षा सागम देवी बताती हैं कि सरकार कह रही है कि एस0एच0जी0 स्वरोजगार हेतु उससे सहयोग ले, और इधर बैंक हैं जो ऋण दे नहीं रहे। उनके समूह को भी 23.2.2008 को ही रिभौलभिंग फॅंड का आवंटन हुआ है, परन्तु ऋण मिलना तो दूर अभी बैंक द्वारा उक्त राशि को भी उनके बचत पास बुक में नहीं चढ़ाया गया और तो और बैंक है केहुनिया के नाम पर परन्तु चलता है वहाॅं से 8 किलो मीटर दूर नरकटियागंज हरदिया चैक पर जहाॅं आने जाने में भी उन्हें काफी परेशानीहोती है। निजी सवारी का भाड़ा कर जाना पड़ता है, जिसमें प्रति व्यक्ति अप-डाअन 20 रुपया किराया देना पड़ता है। फिर भी वे पेट काटकर बार बार बैंक जा ही रही हैं। उनका कहना हैं कि देखते हैं कबतक मैनेजर साहब मैचिंग राशि नहीं देते हैं। वैसे उन्होने गत वर्ष नवम्बर माॅह में इस संबंध में जिला पदाधिकारी तथा अग्रणी बैंक प्रबंधक से भी शिकायत की थी, लेकिन वे दोनो भी कोई सकारात्मक कार्यवाही नहीं कर सके। उन्होने निर्णय लिया हैं कि वे एक बार और जिला पदाधिकारी महोदय से मिल कर अपना दर्द सुनायेगीं, अगर वे कुछ कर पाते हैं तो ठीक है, अन्यथा वे बैंक का घेराव कर भीषण प्रदर्शन करेगी, आवश्यक हुआ तो वे अनिश्चितकालीन घेरा ड़ालो, ड़ेरा ड़ालो अभियान भी शुरु करने को बाध्य होंगी।
ये तो हुई रिभौलभिंग फॅंड प्राप्त समूहों की स्थिति। परन्तु यहीं खत्म नहीं होता है उक्त बैंक का एस0जी0एस0वाई0 एवं एस0एच0जी0 के प्रति कुव्यवहार। परोरहां पंचायत के अन्य समूहों से जुड़ी शारदा देवी, मीरा देवी, गुलजारो देवी तथा सुशीला देवी बताती हैं कि उनके समूहों का चयन रिभौलभिंग फॅंड प्राप्त करने हेतु महिला प्रसार पदाधिकारी, नरकटियागंज, द्वारा अगस्त 2008 में ही किया जा चुका है, परन्तु अभी तक शाखा प्रबंधक महोदय द्वारा उनके चारो समूहों के आवेदनों का ग्रेड़िग तक भी नहीं किया गया है। अगस्त 08 से अबतक उनलोगों को 10 बार ग्रेड़िग हेतु बैंक शाखा में बुलाया गया है, परन्तु शाखा प्रबंधक बराबर व्यस्तता का राग अलाप कर उन्हें टाल देते हैं। उनका प्रश्न है कि अगर मैनेजर साहब को समय नहीं है तो उन गरीबों को बुलाते ही क्यों हैं। उनका यह भी प्रश्न है कि अगर हैरान करने के बाद भी ऋण या रिभौलभिंग फॅंड नहीं ही मिलना है तो फिर डी0आर0डी0ए0 या प्रखंड़ उन्हें बैंकों से जोड़ कर उनके मन में विकास की झूठी आशा क्यों जगाता है? क्या सरकार सिर्फ धोषणायें ही करेंगी और बैंक तमाशा? वे अब बाध्य होकर सोचने लगी हैं कि सरकार उन गरीब महिलाओं के साथ घिनौना मजाक कर रही है, तकदीर ने तो उन्हें गरीबी के दहलीज पर तो खड़ा कर ही रखा है और बैंकों की गतिविधियाँँ अगर इसी तरह बरकरार रही तो उनको लगता है कि उनका सारा समय दौड़ा-दौड़ी में ही व्यतीत हो जायेगा और उनके बाल बच्चों को तो दाने के लाले पड़ ही जायेंगे, बेचारे चूहें भी भूख से पटपटाकर काल के गाल में समाने लगेगें।
   

  पश्चिम चम्पारण 
  थरुहट में आज भी हैं अंगे्रजी आतंक
बिना थानेदार को चढ़ावा दिये थारु न जन्म लेते हैं, न मरते हैं  
  क्या ये भी कभी आजादी की सुबह देख पायेंगे ?
पवन पाठक  
  भारत-नेपाल सीमा पर अवस्थित प. चम्पारण के गौनाहा प्रखण्ड की पुलिस अब यहाँ के मूल निवासी थारू जनजाति के युवकों को माओवादी बनाने या घोषित करने की राह पर चल पड़ी है। यहाँ के निरीह थारू समुदाय आज भी पुलिसिया हथकंडे और रौब-रूआब के आगे इस कदर डरे-सहमें दिखते हैं जैसे वहाँ आज भी वे गणतंत्र भारत में न रहकर ब्रिटिश कालीन पुलिस के रहमो करम पर ही रहने को अभिशप्त हैं।
  सरकार के मुखिया नीतीष कुमार तथा पुलिस महानिदेषक डी एन गौतम भले ही पुलिस की छवि जनता के मित्र के रूप में बनाने के लिए कवायद कर रहे हंै। लेकिन हकीकत इसके विपरीत है। प. चम्पारण जिले में उक्त दोनों के प्रयास का कोई असर नहीं दिख रहा है। और पुलिस की छवि पहले से और डरावना बन गई है। इसका ताजा उदाहरण गौनाहा थानाध्यक्ष विनोद यादव की करतूते हंै।

सिठ्ठी पंचायत अन्र्तगत विजयपुर गाँव के थारू जनजाति युवक अमरेष कुमार ने चम्पारण क्षेत्र के डीआईजी प्रीता वर्मा को एक आवेदन देकर थानाध्यक्ष की करतूतों को उजागर किया है। इस आवेदन में थानाध्यक्ष पर अरोप लगाया गया है कि उन्होंने अमरेष की खतियानी जमीन से कटे शीषम के सुखे पेंड को पुलिसिया धांैस जमाकर उसके दरवाजे से नवम्बर 30, 2008 को उठवा ले गये। विरोध करने पर उसके परिजनो के साथ थानाध्यक्ष ने अभद्र ब्यवहार किया, इनता ही नहीं उसे जप्ति सूची भी नहीं दी गई। काफी मशक्कत के बाद थानाध्यक्ष ने जप्ति सूचि देने का आश्वासन दिया। कई दिनों तक अमरेश थाने का चक्कर लगाता रहा और थानाध्यक्ष उसे टरकाते रहें। इसी क्रम में जब उसने जनवरी 4, 2009 को थाना परिसर से लकड़ी गायब पाया तो थानाध्यक्ष से इस बात की पूछ-ताछ की। आग बबूला हुए थानाध्यक्ष ने उससे कहा कि उक्त लकड़ी से डीएसपी और एसपी के लिए फर्निचर बन गया है। तुम्हें जहाँ जाना हो जाओं
ज्यादा फड़फड़ाओगे तो माओवादी घोषित कर जेल भेज दँूगा। थानाध्यक्ष की इस करतूत की शिकायत अमरेश ने डीआईजी 
से की। डीआईजी ने नरकटियागंज एसडीपीओं को इस मामले की जाॅच का जिम्मा सौपा है। 
 थानध्यक्ष की यह कोई पहली करतूत नहीं जिसे लिपा-पोती किया जा सके।
इसी पंचायत के फचकहर ग्राम के गुमस्ता 
राम प्रसाद महतो को पुलिस ने मनमाने ढ़ंग से वर्षो पूर्व एक मामले में गवाह बना दिया, चूकि इसकी जानकारीद्वारा गवाही की नोटिस की कोई जानकारी नहीं मिल सकी। न्यायालय से वारंट निर्गत होने के बाद राम प्रसाद ने न्यायालय में उपस्थित हो वारंट रिकाॅल प्राप्त कर थाने को प्राप्त करा दिया। फिर भी गौनाहा थाने की पुलिस उसे बार-बार गिरफ्तार करती रही है। उसने कम से कम चार बार थाने में रिकाॅल की ं उसकी गिरफ्तारी की जाती रही। अािखरी गिरफ्तारी जनवरी के प्रथम सप्ताह में हुई थी। राम प्रसाद थानाध्यक्ष को बार-बार कहता रहा कि उसने पूर्व में ही रिकाॅल जमा करा दिया है । उसने थानध्यक्ष को विगत मुखिया चुनाव के समय भी उसे नौमिनेषन देने से रोकने की बात बताते हुए उसके द्वारा वारंट रिकाॅल जमा करने की बात बताई और तब जा कर वह अपना नौमिनेषन दाखिल किया था, किन्तु थानाध्यक्ष बातों को मानने को कतई तैयार नहीं थे। और न तो इस विषय में वे किसी से कुछ पुछना ही मुनासीब समझतें थे। लिहाजा वे थारू जनजाति के एक संभ्रात सामाजिक ब्यक्ति राम प्रसाद को 12 घंटे से अधिक हाजत में बंद रखें। तराई तरंग को अपना दुखड़ा सुनाते हुये राम प्रसाद ने थानाध्यक्ष पर अरोप लगाया कि रात में थानध्यक्ष ने उसके परिजनों से ढ़ाई सौ रूपये रिष्वत लेकर छोड दिया। और कहा कि अगले दिन 500 रूपये लेकर आना तब तुम्हारा वारंट सूचि से नाम काट दिया जायेगा।
वह कई बार की गिरफ्तारी से अजीज आ चुका था लिहाजा उसने 500 रूपये देकर थानाध्यक्ष से वारंट सूचि से नाम काटने की गुहार लगाई। अब भी उसका नाम कटा या नहीं इसकी जानकारी उसे नही मिल सकी है। यह तो थारू जनजाति बहुल इलाके में पुलिस के हैरतअंगेज कारनामों का छोटा उदाहरण है। चूकि थारू जनजाति बहुल इस क्षेत्र में गुमास्ता द्वारा ही अधिकतर विवादों का निपटारा कर दिया जाता है, जिससें आपसी विवादों से संबंधित मामले थाना नहीं पहुँच पाते हैं। फलस्वरूप पुलिस की कमाई बाधित होती है। लिहाजा पुलिस निरीह थारूओं को धमका कर पैसे ऐंठने के साथ-साथ अवैध खनन एवं वन तस्करों से साठ-गाॅठ कर अपनी काली कमाई को अंजाम देती है। नेपाल सीमा से सटे होने के कारण माओवादियों का इस क्षेत्र में आना जाना रहता है, लिहाजा पुलिस निरीह थारूओं को माओवादी बताकर उनकी गिरफ्तारी का भय दिखाकर पैसे की उगाही करती है। पिछले अक्टूबर महीने में अवैध खनन के पत्थर से लदे ट्र्रैक्टर टेलर को थाना ने 5000 रूपये चढ़ावा के बल पर छोड़ दिया था, लेकिन सूत्रों द्वारा जानकारी पाकर डीएफओ श्री चन्द्रषेखर ने इसकी सूचना पुलिस अधीक्षक के एस अनुपम को दी। संयोगवष पुलिस अधीक्षक जो उसी क्षेत्र में थी,ा उन्होंने थाना को उक्त ट्रैक्टर-टेªलर की जप्ति का आदेश दिया। आदेश मिलते ही थानध्यक्ष के पैरो तले जमीन खिसकने लगी और वे बगैर देरी किये उक्त ट्रैक्टर-टेªलर को जप्त करने बिजयपुर गाँव जा पहुँचे। महिलाओं ने इस जप्ति का कड़ा प्रतिरोध किया। उनका कहना था कि जब रूपये ले लिया तो फिर जप्ति कैसा?
  थानध्यक्ष एसपी के आदेश का हवाला देते हुए गिड़गिड़ाना शुरू किये कि अगर इसे हम जप्त नही करते हैं तो एसपी मेरी नौकरी खा जायेगी। हृदय से साफ सुथरी थारू महिलाओं ने थानाध्यक्ष की नौकरी के नाम पर ट्रैक्टर-टेªलर को जाने दिया।      बहरहाल थानध्यक्ष के खौफनाक हरकत से थारू समुदाय के लोग भयभीत हंै। तराई तरंग ने पुलिस की कारगुजारियों की सत्यता की जानकारी चाही तो पुलिस पर लगे अधिकतर अरोप सही साबित हुए। पुलिस की इस विद्रूप छवि ने 
सुशासन के सपने को तार-तार कर दिया है। उधर थानाध्यक्ष ने अपने उपर लगे सभी आरोपों को सिरे से खारीज कर दिया।

व्यक्तित्व  
  टोपी कश्मीरी, पतलुन मराठी, पर मन में है चम्पारण का मोह 
  - शुकदेव प्रसाद
तरंग टीम
हाॅ, यह कोई अतिश्योक्ति नहीं है। आज मौका मिलते ही गांव के सक्षम लोग शहर, वह भी दूसरे राज्य के अच्छे शहर, के तरफ आंख मूंदे पलायन करने से चुक नहीं रहे हैं।एक बार वहाॅं अपना पैर जमाते ही वे पुनः गांव आने की बात तो दूर, आने की सोच को भी मन में फटकने नहीं देते। परन्तु अदभूत मिजाज है, मन है नौतन प्रखंड के बन्हौरा सोता ग्राम में 1944 में जन्में शुकदेव प्रसाद जी का। 
 ये 37 वर्षों तक उड़िसा की राजधानी भुवनेश्वर तथा प्रसिद्ध हीरा कुंड़ बांध के समीप बसे शहर सम्बलपुर में एक प्रतिष्ठितअर्ध सरकारी कम्पनी में उच्चे पदों पर कार्यरत रहें। परन्तु अवकाश प्राप्त होते ही उनके मन में चम्पारण की मिट्टी के प्रति जड़ जमाया मोह इनपर हावी हो गया, और ये सबकुछ समेटे तथा कूच कर दिये चम्पारण की ओर। श्री प्रसाद तराई तरंग को बताते हैं कि उड़िसा में कार्यरत कई विदेशी कम्पनियों ने उन्हें मोटा रकम देने का लालच भी दिया, पर उनके मन में 37 वर्षों से सुसुप्त रहे चम्पारण मोह ने उनके मायाजाल में फॅंसने नहीं दिया। इनका कहना है कि उन्हें अब अधिक धन की आवश्यक्ता ही क्या है। उनकी तीनों बेटियों की अच्छे घरानों में शादी हो गयी हैं। इनका बड़ा बेटा साॅफ्ट वेयर इंजिनीयर है तथा अमेरिका में कार्यरत है। पुस्तैनी जमीन भी काफी है। अतः वे क्यों अब 64 वर्ष के उम्र में भी दूसरे के अधीन रहे। 
 शुद्ध शाकाहारी तथा गायत्री परिवार से जुड़े श्री प्रसाद कहते हैं कि तुलसी दास की पंक्ति ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’ के वे पर्वतक हैं। परन्तु वे कहते हैं कि दूसरों की सेवा करना मनुष्य की नीयति के साथ-साथ स्वभाव है। वे बताते हैं कि अपनी मिट्टी पर आकर तो वे ज्यादा बेचैनी से लोगों की सेवा तथा विकास में जुट गये हैं। वे कहते हैं ‘‘आखिर मुझे तो इस मिट्टी का कर्ज भी तो उतारना है। 37 वर्षों तक तो मैने अपना पेट भरा। अभी ही तो मौका मिला है कि जिस मिट्टी का अन्न खाकर, जिन लोगों का सहयोग तथा आशीर्वाद पाकर मैं सक्षम बना उनका भी तो कुछ सेवा करु।’’
 निसंदेह विगत दो वर्षों में शुकदेव जी एक युवा सैनिक के तरह अपने गांव तथा इलाके की सेवा में जुटे हैं। इनके प्रयास से इनके पिता द्वारा दी गयी भूमि पर स्थित प्राथमिक विद्यालय में अब आठवी कक्षा तक पढ़ाई हो रही है। इनका सपना है इसे 12 वी तक कराने की। इन्होंने अपने गांव में एक स्वास्थ्य केन्द्र की भी मंजूरी करा ली हअब उनके गांववालों को बैंक सेवा के लिए दूसरे जगह नहीं जाना पड़ेगा। अगलेे कुछ मांहों में संभवतः पंजाब नैशनल बैंक की शाखा यहाॅ कार्य करने लगेगी। ये तो हुए विकास कार्य। श्री प्रसाद का दूसरा सेवा अभियान है अपने गांव तथा अन्य लोगों की बेटियों की शादी कराने में सहयोग देना। विगत दो वर्षों में ये करीब एक दर्जन लड़कियों की शादी करा चुके हैं। कहते हैं कि ‘‘हमारे समाज में लड़कियों का विवाह कराना सबसे बड़ा धर्म है, नहीं तो तिलक-दहेज का रोग हमारे समाज को खोखला बनाते जा रहा है।
  शुकदेव जी की चाहत पूर्णतः सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक कायों में रमे रहना है।परन्तु 64 वर्ष की उम्र के बावजूद इनके युवा सदृश्य स्वभाव तथा समाज के सभी वर्गों में इनके बढ़ते प्रभाव को देखकर कुछ राजनति के खिलाड़ी भी इनपर डोेरे ड़ाने में सफल हो गये हैं तथा उन्हें प्रेरित कर जदयू के जिला किसान प्रकोष्ठ के महासचिव पद को स्वीकार करवा लिए हैं। वैसे श्री प्रसाद का इसे स्वीकार करने के पीछे एक मात्र ध्येय है कि ये इसके बदौलत कुद लोगों का यथासंभव कल्याण करा सके। आखिर प्रजातंत्र में राजनीतिक दल की अहम भूमिका होती है। इनके जानने वाले कुछ लोग कहते हैं कि श्री प्रसाद जैसा व्यक्ति अगर उनका विधायक हो जाय तो एक नयी रचनात्मक राजनीतिक संस्कृति का बीजारोपण हो सकता है। 

बाल्मीकि व्याघ्र रिजर्व
  आनन फानन में गाड़ा गया हिंसक वन पशु बच्चा
  कोई चीता, कोई बाघ, पर वन पदाधिकारी कहते फिशिंग कैट !  
अमरेश कुमार थारु
 गौनाहा प्रखंड
  विगत जनवरी 08, 2009 को सुबह बाल्मीकि टाइगर रिजर्व के मंगुराहा वन रेंज यानि प0 चम्पारण के गौनाहा प्रखंड के सीठी पंचायत के बखरी गाॅंव, जो जंगल से लगभग आधा किलोमिटर दूर है, के समीप झाड़ी बसवारी में एक हिंसक वन पशु का बच्चा मरा पाया गया। चर्चा है कि उक्त बच्चा एक ग्रामीण की झोपड़ी में रात के वक्त घुस आया था और अहले सुबह घर वाले पाये कि वह मरा पड़ा है। ततपश्चात् वन विभाग की लफड़ा से बचने हेतु वे चुपचाप उसे कोहरे के धुन्ध में नजदीक की झाड़ी-बसवारी में फेंक दिये। बाद में वन विभाग के स्थानीय कैटल गार्ड को वन पशु के बच्चे की मौत की जानकारी हुयी तो वह तुरन्त मंगुराहा रेंज के फौरेस्टर राम नारायण प्रसाद को सूचित किया जो जल्द ही घटना स्थल पर पहुॅंच गये। रेंज के रेंजर पुरषोतम सिंह उस दिन क्षेत्र से बाहर थे। 
   
अतःश्री प्रसाद ने तुरन्त ही मरे बच्चे को गौनाहा लाये तथा जहाॅं स्थानीय पशु चिकत्सालय के प्रभारी डाॅ0 संतोष कुमार ने उसका पोस्ट माॅंर्टम किया तथा उसकी मृत्यु का कारण ज्यादा ठंढ़ लगना बताया। उसके बाद उस मृत हिंसक पशु के बच्चा को मंगुराहा रेंज कार्यालय के पास गाड़ दिया गया।
वैसे मृत हिंसक वन पशु के बच्चे की पहचान के बारे मे विभिन्न तरह के दावे किये जा रहे हैं। मृत बच्चा को कोई रायल बंगाल टाइगर का शावक बता रहा है, तो कोई तेन्दुआ या चीता का बच्चा, तो कोई फिशिंग कैटयानि वन बिलार का बच्चा। परन्तु इस वन प्रमण्ड़ल के पदाधिकारी एस0 चन्द्रशेखर ने तराई तरंग से बताया कि मृत बच्चा निसंदेह फिशिंग कैट का ही था। वैसे सूचना है कि उक्त बच्चे के पोस्ट माॅंर्टम तथा उसे गाड़ने के समय श्री चन्द्रशेखर गौनाहा या मंगुराहा में स्वयं मौजुद नहीं थे। श्री चन्द्रशेखर अत्यन्त कर्मठी, ईमानदार एवं स्पष्टवादी व्यक्ति हैंा अतः उनके बयान पर शक करना उचित प्रतीत नहीं होता है। फिर भी प्रश्न उठता है कि उनके अधिनस्त पदाधिकारी गलत सूचना देकर क्या उन्हें दिगभ्रमित नहीं कर सकते हैं ? और उन्होंने वहीं बताया हो जो उनसे कहा गया हो। यह सर्वविदित है कि बाल्मीकि टाइगर रिजर्व पर विगत दो दशक से बाघ संरक्षण तथा वर्धन हेतु करोड़ो रुपयें पानी के तरह भारत सरकार ने बहाया है। ऐसी स्थिति में किसी बाघ के शावक को ठंढ़ या किसी भी कारण से मृत पाया जाना पूरे देश में बाघ संरक्षण के प्रति लगाव रखने वालों के लिए एक विप्लव पैदा करने वाली घटना मानी जाती। और वन विभाग के पदाधिकारियों को सफाई देते नहीं बनती कि आखिर बाघ का शावक कैसे मरा। जानकारों का कहना है कि पूर्व में प0 चम्पारण के जंगलों में ठंढ़ से किसी बाघ के मरने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
अतः जानकारों को शक है कि वन विभाग के कर्मियों ने मामला को दबा देने के लिए आनन फानन में गौनाहा में ही उसका पोस्ट माॅर्टम करा कर दफना दिया। यह प्रश्नहै कि उस वन पशु बच्चे को बेतिया लाकर मीड़िया तथा बड़े पदाधिकारियों की उपस्थिति में भी तो पोस्ट माॅंर्टम कराया जा सकता था। अगर ऐसा होता तो सब कुछ दुू ध का दूुध, पानी का पानी हो गया होता। परन्तु ऐसा न कराकर संबंधित पदाधिकारियों ने स्वयं को शक के कटघरे में खड़ा कर लिया है। अभी अति ठंढ़ का मौसम है, अतः शव दो तीन दिनों तक सड़ता तक नहीं अगर उसे थोड़े वर्फ में रख दिया जाता। मृत पशु बच्चा के बाघ का शावक होने की बात को हवा इस तथ्य से भी मिल रही है कि उसका पोस्ट माॅर्टम करने वाले डाॅ0 कुमार के पिता छपरा या सिवान में वन विभाग के बड़े पदाधिकारी हैं। अतः संभंव है कि वन कर्मियों ने डा0 कुमार के सहयोग से बाघ के बच्चे की मृत्यु का खबर फैलने से उत्पन्न होने वाली खतरा को टालने हेतु उसे जल्दबाजी में रफा दफा कर दिया। संभव है कि जबतक तराई तरंग का यह अंक आये तबतक मृत वन पशु बच्चा का शव 
पूर्णतः सड़गल जाय क्योंकि उसे काफी मात्रा में नमक के साथ गाड़े जाने की सूचना है। ऐसी स्थिति में उसकी पहचान करना असंभव हो जायेगा। उसकी पहचान मात्र उसकी हड्डियों की डी0एन0ए0 जांच से ही संभव होगी जो वन पदाधिकारी होने नहीं देंगे क्योंकि ऐसा करना उनके हित में नहीं होगा। फिर भी सत्य की पुकार है कि मृत वन पशु के बच्चे कीहड्यिों की डी0एन0ए0 जांच हो। 
 
  संपादक: प्रकाश चन्द्र दूबे, संपादकीय संयोजक: पवन पाठक, संपादकीय सलाहकार मंडल: सुनील दूबे, अपफरोज आलम ‘साहिल’, राजीव रंजन वर्मा,शिव कुमार, मध्ुसूदन मणि त्रिपाठी, संपादकीय सहयोगी: अजय दूबे, मृत्युंजय दूबे, पृष्ठ सज्जा: राकेश कुमार, सोनू भारद्वाज, संपादकीय एवं प्रकाशन कार्यालय: न्यू काॅलोनी, डाक बंगला रोड, बेतिया- 845438 ;बिहारद्ध। दूरभाषः 06254-24730, 9431212198, ई-मेलः जमतंपजंतंदह/हउंपसण्बवउ, 
स्वामी तथा प्रकाशक: प्रकाश चन्द्र दूबे, मुद्रक: विनोद कुमार द्वारा कुमार प्रिंटर्स, तीन लालटेन चैक, बेतिया से मुद्रित। सारे पद अवैतनिक और अस्थाई हैं। तराई तरंग से सम्बध्ति किसी भी विवाद का निबटारा बेतिया न्यायालय में ही होगा । त्छप् ज्पजसम ब्वकम रू ठप्भ्भ्प्छक्4770ध्04ध्1ध्2007.ज्ब्









   







   


  बाल्मकिनगर संसदीय क्षेत्र
  टिकट के लिए जदयू में उभरे कई खेमें: सब अपने को कहते नीतीश के चहेते  
  ऐसा लग रहा कि जदयू टिकट मायने जीत की गारन्टी

 तरंग टीम
  बाल्मीकिनगर संसदीय क्षेत्र पर जदयू का कब्जा रहा है। अतः स्वभाविक है कि इस दल के नेता इसे अपना विरासत मानने लगे हो। वैसे भावी चुनावी दंगल कौन जितेगा, कौन हारेगा, पूर्व के आकड़ो तथा परिणामों के आधार पर भविष्यवाणी करना पूर्णतः विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता। फिर भी भविष्य की राजनीतिक दिशा पूर्व की स्थिति जरुर कुछ हद तक प्रभावित करती है। खैर, वर्ष 2009 के संसदीय चुनाव की स्थिति पहले से तो जरुर काफी बदली हुयी है। पहले यह क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित था। इसलिए वोटरों तथा राजनीतिक दलों के पास उम्मेदवारों के चयन में ज्यादे विकल्प नहीं थे। परन्तु अब तो सभी दलों में उम्मेदवारों की फौज खड़ी हो गई है। जब अन्य दलों में टिकट के लिए मारा मारी जोरो पर है, तब जदयू में तो सबसे ज्यादा टिकट हथियाने के लिए दाव पेंच जारी होना चाहिए।टिकट के लिए लार टपकाने वाले सभी भावी उम्मेदवार आश्वस्त है कि जदयू का अधिकृत उम्मेदवार घोषित होते ही मानो कि जनता उन्हें अपनी गोद में उठाकर संसद पहुॅंचा देगी। वैसे यह सत्य है कि नीतीश सरकार की जलवा का भ्रमजाल अभी भी ज्यादातर जनता को फॅंसाये हुए है। जनता को अभी भी भरोसा है कि लालू यादव की तुलना में नीतीश कुमार की नीयत जनता का कल्याण करना है, भले जमीनी स्तर पर लालू राज के पले पोसे तथा लालू राज को पुनः वापस लाने के सपने सजोये कुछ महत्वपूर्ण पदाधिकारी, अभियन्ता तथा उनके दलाल जन कल्याण के कार्यक्रमों को घून तथा दीमक सदृश्य चाट रहे हैं।अतः नीतीश कुमार द्वारा सच्चे मन से चुने हुए जदयू के संसदीय उमेद्वार को जनता जरुर सिरोधार्य करेगी। परन्तु इसका अर्थ कदापि नहीं है कि नीतीश जी जिस किसी को थोप देंगे उसे जनसमर्थन मिलने की गारंटी होगी ही।
  इसलिए नीतीश जी को काफी सोच विचार कर अपने उम्मेदवार को चुनने होगे। उन्हें ख्याल रखना होगा कि कोई जरुरी नहीं है कि पुराने चुनावी धुरन्धर ही इस सीट पर जीत का परचम लहरा सके। वे बूरी तरह सिकस्त भी हो सकते हैं। संभव है कि कोई नया चेहरा जनता का दिल जीतने मे ज्यादा सफल हो। राजनीतिक पर्यवेक्षक कहते हैं कि नीतीश जी के लिए उम्मेदवार चयन में किसी नये चुनावी चेहरा को महत्व देना ज्यादा फायदेमंद हो सकता है। पुराने चुनावी महारथियों के पास अकूत धन हो सकता है, परन्तु अकूत धन अर्जन के दौरान उनके द्वारा किये गये कुकर्मों को चुनाव के समय कहीं जनता याद कर ली तो जदयू को लेना का देना पड़ जायेगा। और किसी दूसरे दल का लोमड़ी बुद्धि वाला कोई चुनावी शिकारी जनता के वोटों का शिकार न कर ले।
खैर, जदयू की उम्मेदवारी किसके तकदीर में दर्ज है यह अगले कुछ सप्ताहों में स्पष्ट हो जायेगा। संभवतः नीतीश जी का ‘सरकार आपके द्वार’ का प्रभावकारी रामलीला कार्यक्रम की शुरुआत इस क्षेत्र से ही शुरु होने का यह भी कयास लगाया जा रहा है कि कहीं वे यह पता करने तो नहीं आ रहे हैं कि यहाॅं के चुनावी दंगल में किस पहलवान को भिड़ाया जाय। जदयू में कसरत कर रहे सभी पहलवान तो पुरुष ही हैं, परन्तु वे यह पता करना चाहते हैं कि ये पहलवान वास्तव मे दमदार हैं या सिखन्ड़ी तो नहीं जिन्हें प्रचार में जुटाकर वोट इकठ्ठा तो किया जा सकता है, चुनावी युद्ध में लड़ाया नहीं जा सकता। अगर ऐसी स्थिति है तो क्यों न किसी महिला को ही यहाॅं से जदयू उम्मेदवार बना दिया जाय। आखिर नारी सशक्तिकरण केप्रणेता हैं नीतीश जी। आज उन्हीं कादेन है कि पंचायती राज व्यवस्था में 50 प्रतिशत से ज्यादा पदों पर महिलायें विराजमान हैं। राज्य के एक नम्बर बाल्मीकिनगर क्षेत्र से किसी नारी को टिकट देकर देश में वर्षों से जारी महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीट आरक्षित करने के असफल प्रयास को कहीं ये अमलीजामा पहनाना अपने दल से ही शुरु न कर दे।
  खैर, यह भविष्य की कोख में छिपा है कि कौन वास्तव में जदयू उम्मेदवार होगा। परन्तु भावी उम्मेदवारों में सबसे ज्यादे बेचैन तथा आकाश पाताल एक करने में जुटे लोगों में पूर्व मंत्री एवं नौतन विधायक बैद्यनाथ महतो, पूर्व मंत्री तथा बगहा विधायक पूर्णमासी राम, लौरिया विधायक प्रदीप सिंह एवं जदयू जिला अध्यक्ष शम्भू गुप्ता का नाम अग्रणी है। कुछ अन्य आशान्वित लोग भी हैं, परन्तु वे गुमनाम रहकर ही सूक्ष्म तरीकें से अपनी उम्मेदवारी को सशक्त करने में लगे हैं। वे हवाबाजी से अलग हैं, परन्तु आश्वस्त हैं कि अगर नीतीश जी घीसे-पीटे राजनीतिक मुहरों से चुनावी दाव नहीं खेलने का निर्णय लेते हैं, तो उनकी चांदी कट सकती है और वे विजय श्री को भी पाने में सफल होगें। क्योकि जनता भी पुराने धुरन्धरों से उनके धन अर्जन संस्कार से उब चुकी है।
 विगत 21 दिसम्बर को आयाजित जदयू का ‘सम्मान सभा’ को सफल बनाने में इन भावी उम्मेद्वार धुरन्धरों तथा गुमनाम मुकद्दर के सिकन्दरों ने भी अपनी पूरी शक्ति झोक दी थी। सबों का प्रयास था कि पार्टी के राज्य अध्यक्ष ललन सिंह के नजर में उनकी औकात बढ़ जाय क्योंकि ललन सिंह मुख्य मंत्री नीतीश के आॅंख कान माने जाते हैं। अतः ललन जी के यहाॅं अगर गोटी फिट हो गयी तो फिर चाॅंदी ही चाॅंदी है। मात्र पूर्णमासी राम आयोजन को सफल बनाने में सहयोग देने की बात कौन कहे सभा में शामिल तक नहीं हुए। उनके भाई तथा विधान परिषद सदस्य राजेश राम भी समारोह से नदारद थे। खैर इससे पूर्णमासी राम की उम्मेदवारी के स्वपन पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है। वे ललन सिंह जैसे प्राॅंक्सी आंख-कान का परवाह नहीं करते। उनकी कोशिश रहती है कि सीधे नीतीश जी की आंखों के समक्ष तथा कानों में अपनी बात कहीं जाय। खैर देखे कि कौन जदयू का भावी उम्मेदवार क्या-क्या सपना सजोये हुए है तथा किस आधार पर संसदीय टिकट का दावा ठोक रहा है तथा उसकी जमीनी राजनीतिक हकिकत क्या है। 
सबसे पहले चर्चा बगहा के विधायक पूर्णमासी राम की की जाय। श्री राम बाल्मिकीनगर क्षेत्र के जदयू टिकट का अपने को स्वभाविक उत्तराधिकारी मानते हैं। वे यहाॅं के विधान सभा चुनाव में वर्ष 1990 से ही लगातार अपने प्रतिद्वन्दियों को पछाड़ते रहे हैं। वे किसी भी बड़े नेता की दबदबा भी नहीं सहते हैं। यही कारण है कि उन जैसे प्रभावशाली दलित नेता को महादलितो के मसीहा कहलाने के
को महादलितो के मसीहा कहलाने के
जुगाड़ में लगे मुख्य मंत्री नीतीश कुमार अपने मंत्रीमंड़ल में शामिल तक नहीं किये। श्री राम से लालू यादव भी खार खाये रहते थे। कारण था श्री राम का किसी बड़े नेता के आगे दांत नहीं चिआरना। उनकी धारणा है कि सिंहासन पर बैठ जाने से कोई बड़ा नेता नहीं हो जाता। उनके ऐसे स्वतंत्र स्वभाव को भला कौन घोंटता। फलस्वरुप वे कई पार्टियों की तीर्थयात्रा भी करने से नहीं हिचके। जदयू ने भी उन्हें विधान सभा का टिकट देकर कोई दया नहीं की थी। जदयू को ज्ञात था कि पूर्णमासी को मात देनेवाला कोई दूसरा पहलवान उस वक्त बगहा के राजनीतिक अखाड़े में नहीं था। 
 पर अब स्थिति बदल गयी है। अनारक्षित बाल्मीकिनगर क्षेत्र को सभी दलों के तरह जदयू भी दलित नेताओं के लिए अछूत मान रहे हैं। वैसे राजनीतिक जानकारों का मानना हैं कि इस क्षेत्र में पूर्णमासी राम ही ऐसा नेता हैं जो दलित होते हुए भी सभी जातियों तथा सभी मतों के लोगों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं। परन्तु जदयू नेतृत्व को पूर्णमासी राम स्वीकार्य नहीं है और पूरी संभावना है कि जदयू इनके दिल्ली जाने का सपना चकनाचूर न कर दे। परन्तु जानकारों का मानना है कि श्री राम को अगर टिकट नहीं मिलता है तो वे चुप नहीं बैठेगे और स्वतंत्र उम्मेदवार या राजद या बसपा के टिकट पर चुनावी समर में कुद सकते हैं।बसपा या राजद चुनाव जीतने के लिए किसी भी पूर्व घोषित या प्रचारित उम्मेद्वार को दर किनार कर श्री राम को टिकट दे सकते हंै। अगर ऐसा होता है तो जदयू के लिए जीत मृगमरीचिका बन सकती है। भले नीतीश जी कितना भी ‘सरकार जनता के द्वार‘ का माला जपते रहें। निसंदेह श्री राम के पास पैसा, प्रभाव तथा जन समर्थन तीनों हैं। और जदयू को इसका ख्याल रखना होगा तथा श्री राम को या तो टिकट देना होगा या उचित मुआवजा। वरना वे जदयू के लिए शंकट का स्त्रोत बने रहेगें।
दूसरा प्रबल दावेदार हैं पूर्व मंत्री तथा नौतन विधायक बैद्यनाथ महतो। उनका इस क्षेत्र से कुछ लेना देना नहीं रहा है। उनका यहाॅं से उम्मेद्वार होने का सपना देखना तो आकाश से तारे तोड़ने जैसा होता। परन्तु गत वर्ष मंत्रीमंड़ल सेनिष्कासन के बाद नीतीश कुमार ने उनके घर आकर उनकी आॅंखों के आॅंसू पोछने हेतु उन्हें बाल्मीकिनगर संसदीय सीट का तौफा दिया था। ऐसा दावा कुछ अन्य लोगों के साथ स्वयं श्री महतो करते हैं। उन्होंने ‘तराई तरंग’ से भी इसी बात को दोहराया है। श्री महतो आश्वस्त दिखते है कि नीतीश के मुख से निकला वचन रघूकुल के राम के वजन के सदृश्य है और वे ही बाल्मीकिनगर के चुनाव रथ का बागड़ोर संभालेगें। श्री महतो का कहना है कि उन्हें मंत्रीमंड़ल से अलग इस लिए किया गया कि वे पार्टी का कार्य देखे क्योंकि उनका आम जनता से 
लगाव जग जाहिर है।
  खैर, उनके कुछ आलोचकों का आरोप है कि श्री महतो ग्रामीण विकास मंत्रालय को अपने पूर्व के बेतिया स्थित सहाकारिता बैंक के खजांची के अवतार के तरह चला रहे थे तथा नीतीश जी के बिहार के नये विकास माॅंडल का सत्यानाश करने पर तुले थे, जिस वजह से उनकी छुट्टी करनी पड़ी थी।परन्तु नीतीश जी के प्रति हमेशा वफादार रहे श्री महतो को कुछ न कुछ लाज रखने के लिए तो लौलीपाॅप मिलना चाहिए था। सो नीतीश जी ने आश्वासन दे ड़ाला होगा। वैसे जदयू की वास्तविक राजनीति में अब श्री महतो कोई खास महत्व नहीं रखते। सर्वविदित है कि जदयू की राजनीतिक रीढ़ की हड्डी यानि लव-कुश यानि कुर्मी-कोईरी समीकरण कोइरी समुदाय के सर्वप्रिय नेता उपेन्द्र कुशवाहा के जदयू से एक प्रकार से धक्का देकर निकालने के साथ ही टूट गयी थी। अतः उपेन्द्र कुशवाहा को बिहार के भावी मुख्य मंत्री के रुप में देखने वाला संख्या के मामले में कुर्मी जाति से ज्यादा मजबूत कोइरी समाज अब किसी भी स्थिति में
कुर्मी जाति के सर्वमान्य नेता नीतीश के दल को वोट देने वाला नहीं है। भले जदयू का उम्मेदवार कोइरी ही क्यों न हो। 
  अतः संशय बना हुआ है कि नीतीश जी श्री महतो को यहाॅं से उम्मेदवार बनायेगे या नहीं। वैसे श्री महतो भी इस तथ्य से अवगत हैं। फिर भी वे नीतीश जी के प्रति अपने पूर्व की वफादारी के बल पर टिकट पा लेने के लिए जी जान लगाये हुए हैं। श्री महतो की बेचैनी का कारण है कि वे इस तथ्य से भलीभांति अवगत हैं कि पुनः वे नौतन विधान सभा क्षेत्र से जीतने वाले नहीं है क्योंकि यहाॅं का ताकतवर कोइरी समुदाय उनकों नीतीश जी के लटकन के रुप में घोटने को तैयार नहीं है। दस्यु भागड़ विरोध नैया की सवारी भी श्री महतो को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी।परन्तु बेतिया पुलिस की कप्तान के0एस0 अनुपम के प्रयास से भागड़ के आत्मसमर्पण के साथ ही श्री महतो की वह दस्यु विरोधी नैया भी डूब गयी है। अतः वे चाह रहे हैं कि किसी प्रकार बाल्मीकिनगर संसदीय टिकट झटक ले जिससे कि उन्हें नौतन की जनता का फिर मूॅंह न देखना पड़े क्योंकि उन्हें भय है कि अगली बार नौतन से फिर उन्हें फूलों का विजय हार मिलने वाला नहीं है, बल्कि ज्यादा संभावना पराजय की कालिख पुतने की ही है। वैसे अगर उन्हें जदयू टिकट मिलता है तो आशा है कि जदयू-भाजपा की जातीय समीकरण उनके सर पर जीत का सेहरा बांध दे, बसर्ते दोनो दलों का एक दूसरे के प्रति विश्वास बना रहे। संभव है कि संसद मे जाने हेतु उन्हें इस क्षेत्र का उनका कोइरी समुदाय जो लौरिया तथा धनहा में प्रभावशाली है अपना समर्थन देदे। क्योंकि दिल्ली में जाने के बाद कहीं येउपेन्द्र कुशवाहा का ही धून गाने लगे। आखिर दिल्ली काफी तिलश्मी है। वहां कोई भी अपना रंग बदल सकता है।
  इस संसदीय क्षेत्र की नुमाइन्दगी हेतु लौेरिया विधायक प्रदीप सिंह भी काफी हाथ पाव मार रहे हैं। जानकारो ेका कहना है कि उनकी दावेदारी का मुख्य आधार उनका जदयू सुपी्रमो मुख्य मंत्री नीतश कुमार से जातीय तार जुड़ा होना। 
उन्हें लौरिया से भी जदयू की उम्मेदवारी का आधार यह तार ही था। अन्यथा जातीय संख्या बल के आकड़ों के खेल में लौरिया क्षेत्र में कुर्मी मतदाताओं की स्थिति बेहद लचर है। परन्तु जब नीतीश कुमार ही राजनीतिक संरक्षक हो तब उन्हें टिकट मिलने की गारन्टी से इनकार नहीं किया जा सकता। अभी नीतीश जी का सितारा बुलन्द है, अतः उनके संरक्षित उम्मेदवार की जीत का स्वप्न भी सच होने की काफी उम्मीद है। जहँँा तक बाल्मीकिनगर संसदीय क्षेत्र में उनकी लोकप्रियता का प्रश्न है वह खस्तेहाल की ही स्थिति में कही जायेगी। वैसे बैद्यनाथ महतो की भी लोकप्रियता की स्थिति कोई ठीक नहीं कही जायेगी, भले ही पैसे के बल पर गाड़ियों का काफिला उनके साथ दौड़ते क्यों न दिखाई पड़ता हो। फिर भी ये दोनो लोक सभा पहुॅंचने के लिए लार टपका रहे हैं। श्री महतो के तरह ही प्रदीप सिंह का राजनीतिक भविष्य लौरिया विधान सभा क्षेत्र में लकवाग्रस्त ही दीख रहा है। श्री सिंह 2005 में बसपा उम्मेदवार शम्भु तिवारी से उंगली पर गिनने वाले मतों के अन्तर से ही जीत पाये थे।उनकी जीत का श्रेय अगर किसी को
दिया जा सकता है तो वह है पूर्व की चट्टानी लव-कुश एकता। परन्तु अब यह एकता ध्वस्त हो चुकी है। यह सर्वविदित है कि कोइरी समुदाय यहां काफी सशक्त है और उसका जदयू से तलाक होने का स्पष्ट अर्थ है कि श्री सिंह के लिए अगली बार विधान सभा का मुंह देखना असंभव हो सकता है। यह भी सत्य है कि जदयू से कोई नया शक्तिशाली वोट बैंक विगत तीन वर्षों के इसके शासन काल में जुट नहीं पाया है। मुसलमानो तथा महादलितों का जदयू से जुटना तो अखबारी पैतरेबाजी छोड़ कुछ नहीं है। अतः श्री सिंह की एक मात्र चाहत है कि वे किसी प्रकार विधान सभा चक्रव्यूहु से निकल कर संसदीय राजनीति में प्रवेश कर जाय। संसदीय स्तर पर वे कोइरी वोटरों के नागफाॅंस से बच सकते हैं क्योंकि बाल्मीकिनगर क्षेत्र में कोइरी जाति संख्या बल के दृष्टिकोण से कोई खास बलशाली नही है। संभवतः नीतीश जी अपने प्रियपात्र प्रदीप जी की साप-छछूंदर वाली स्थिति से अवगत हो और उन्हें इससे मुक्ति दिलाने हेतु कहीं इस क्षेत्र का नेतृत्व न देदे। इसी आशा तथा रणनीति के अनुरुप श्री सिंह अपनी उम्मेदवारी का तीर दागने लगे हैं। कहीं तीर लक्ष्य को बेध न दे और वे संसद पहुॅंच जाय तथा लौरिया क्षेत्र के लव-कुश द्वन्द से सदा के लिए मुक्त हो जाय। पर क्या नीतीश जी उन्हें मुक्ति दिलाने में सफल हो पायेगे? इस पर से पर्दा उठने में अभी कुछ समय और लगेगा।
  जदयू के चैथे लंगोट कसे पहलवान हैं शम्भु गुप्ता जो पार्टी के जिला ईकाई के जन्म से ही अध्यक्ष रहे हैं। श्री गुप्ता जरुर लक्ष्मी कृपा से वंचित रहे हैं, परन्तु पूर्णतः लोहियावादी हैं तथा यहाॅं की जनता के बीच के नेता कहे जा सकते हैं। ये आशान्वित है कि नीतीश जी की कृपा दृष्टि उनपर है और वे कार्यकर्ताओं की मर्यादा की रक्षा करते हुए उन्हें हीबाल्मीकिनगर संसदीय क्षेत्र का कमान सौपेगें। उनसे बात करने पर स्पष्ट लगता है कि उनका मनोबल काफी उच्चा है। परन्तु राजनीति के वर्तमान आयामों के जानकार मानते हैं कि आज की राजनीतिक अपसंस्कृति के परिदृष्य में लंगोट वालानेता सत्ता के शीर्ष पर पहुॅंचने की कल्पना करता है तो उसकी नादानी ही कही जायेगी। और निसंदेह श्री गुप्ता लंगोट वाले नेता हैं, जिन्होंने जन कल्याण में अपनी पूरी जवानी कुर्बान कर दी क्योंकि उन्हें भ्रम रहा है कि लोहिया-जय प्रकाश के आदर्शाें की पथगामी जदयू लंगोट वालों की ही पार्टी है तथा वे ही देश के कर्णधार बनेगे। परन्तु तथ्य है कि भाजपा के साथ सत्ता सुख का भोग करने वाले जदयू के शीर्ष नेता अब लोहिया के समाजवाद के मायाजाल से मुक्त हो चुके हैं। अब तो वे अम्बानी, टाटा या अमेरिकी मल्टी नेशनल कम्पनियों के बाजारवाद के चायनीज सिल्क से बने ंकच्छा के धारक बन बैठे हैं। अतः यहअप्रत्याशित घटना ही होगी कि नीतीश जी श्री गुप्ता जैसे खादी लंगोटधारी को टिकट का वरदान दे देते हैं। खैर, यह सत्य है कि अगर श्री गुप्ता को टिकट मिलता है तो वे बिना किसी विवाद या कठिनाई के विजय श्री को पा लेगे।
  परन्तु जानकार बताते हैं कि यह सुखद क्षण श्री गुप्ता के भाग्य में लिखा ही नहीं है। आखिर आजकल कौन लंगोटीवाला कहीं से भी किसी बड़े दल का उम्मेदवार बनाया जाता है। अगरयहीं स्थिति होती तो क्या जदयू का सहोदर भाई राजद बाल्मीकिनगर क्षेत्र से रघुनाथ झा को उम्मेदवार बनाता। क्या राजद को सामाजिक न्याय या नव प्रेमी अगड़ी जाति के किसी स्थानीय माॅं की संतान इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने योग्य नहीं दिखती जो मदारी सदृश्य राजनेता श्री झा को यहाॅं से टिकट देने का संकेत दे दिया है। तो फिर पूर्व रेल मंत्री तथा मुख्य मंत्री के कुर्सी़ पर विराजमान नीतीश कुमार कैसे न किसी श्री झा के सदृश्य मोटे गांठ वाले को टिकट देगे जो श्री झा को उनकी भाषा में ही जबाब दे सके। 
खैर बैद्यनाथ महतो को छोड़कर सभी अन्य स्वघोषित जदयू के भावी उम्मेदवारों के दिलों में संशय का लौ जल रहा है कि टिकट उनको मिलेगा या नहीं। उनकों आशंका है कि कही नीतीश जी अपने पूर्व में किये गये वादे पर अमल करते हुए श्री महतो को ही जदयू की पगड़ी न देदे, भले चुनावी परिणाम जो भी रहे। ऐसी परिस्थिति में अन्य भावी उम्मेदवार चाहेंगे कि किसी दूसरे व्यक्ति को टिकट दिया जाय जो श्री महतो जैसा विवादग्रस्त नेता न हो, जिसकी छवि स्वच्छ हो तथा जिसकी जातीय वोट बैंक भी अन्य उम्मेदवारों से ज्यादा सशक्त हों। 
ऐसा उम्मेदवार तो अभी तक सामने नहीं आ पाया है। परन्तु जदयू में गुपचुप पक रही माघी खिचड़ी की फैलती सुगंध बता रही है कि अन्ततोगत्वा बाल्मीकिनगर का जदयू टिकट मुकुट जिला परिषद अध्यक्ष रेणु देवी के सिर को न सुशोभित करे। रेणु देवी विगत ढ़ाई वर्षों के अपने कार्यकाल में एक गृहिणी से कुशल राजनेत्री के रुप में उभरी हैं। ये अध्यक्ष्ीाय कुर्सी़ से वंचित होने के बाद पुनः उसे हाशिल कर साबित कर दी हैं कि नम्रता, समर्पण तथा कुशल रणनीतिकारों के बल पर राजनीति में शीर्ष पर स्थान बनाया जा सकता है। यह अतिश्योक्ति नहीं होगी अगर कहा जाय कि रेणु देवी आज जिले के सबसे ज्यादा मीड़िया कवरेज पानेवाली तथा सबसे ज्यादा जनसभाओं/कार्यक्रमों में आमंत्रित होने वाली व्यक्ति हैं। इसका स्पष्ट अर्थ है कि हमारे समाज में पुरुषों की अपेक्षा नारियों पर ज्यादा विश्वास किया जाता है। अतः अगर जदयू रेणु देवी को टिकट देता है तो इन्हें बिना ज्यादे परिश्रम तथा धन व्यय किये ही अपार जन समर्थन प्राप्त हो सकता है। इसी क्षेत्र में थारु जनजाति के लोग निवास करते है जिनमें महिलाओं को पुरुष के बराबर ही सम्मान तथा गरिमा प्राप्त होता है। थारु महिलायें तो एक नारी उम्मेदवार को अपनी पलकों पर बिठा लेंगी और रेणु जी की विजय सुनिश्चित कर देंगी।
साथ-साथ यह भी स्मरण रहे कि रेणु देवी विशाल वैश्य समुदाय की कानू जाति से आती हैं। कानू जाति की संख्या इस क्षेत्र में काफी अधिक है जो इनके लिए कवच कुंड़ल सिद्ध होगा। वर्तमान में जदयू के किसी भी भावी उम्मेदवार की अपनी जातीय संख्या बल रेणु जी की जातीय संख्या बल से काफी ही कम है।साथ-साथ अबतक इस संसदीय क्षेत्र के किसी भी विधान सभा क्षेत्र से कोई वैश्य विधायक की कुरसी हासिल नहीं कर पाया है। अतः वृहत वैश्य समुदाय जिसकी संख्या इस क्षेत्र में सबसे अधिक है चाहेगा कि उसका कोई अपना सदस्य संसद पहुॅंच जाय। ऐसी स्थिति में किसी भी दल के उम्मेदवार की तुलना में जिप अध्यक्ष रेणु देवी की जीत की संभावना ज्यादा प्रबल दीख रही है। जानकारों को आशा है कि नीतीश जी अन्य बातों से ज्यादा अपने दल के उम्मेदवार की जीत की प्रबलता पर ज्यादा ध्यान देंगे और ऐसी स्थिति में रेणु देवी ही कहीं बाजी न मार ले जाये तथा अन्य टिकट हेतु कसरत बना रहें पहलवान आॅंखें फाड़े देखते ही न रह जायें। देखे इस क्षेत्र की चुनावी राजनीति क्या मोड़ लेती है! 


पश्चिम चम्पारण . बिहार
  प्रशासन ने आयोजित किया अदभूत खाद-बीज मेला: बकौल पदाधिकारी किसानों हेतु बरदान
  परन्तु कई कहते विक्रेता-कृषि विभाग का खेला
तरंग टीम
विगत नवम्बर माॅंह में जिला कृषि विभाग ने बीज एवं खाद विक्रेताओं का बेमेल विवाह कराकर किसानों के हित के लिए एक अप्रत्याशित मेंला का आयोजन किया। इसका मुख्य लक्ष्य था किसानों को उचित दर पर खाद, खासकरके डी0ए0पी0, प्राप्त हो जाय। क्योंकि चैतरफा शिकायत थी कि खाद विक्रेता इसे मनमाने मूल्य पर, यानि कि बोरा डी0ए0पी0 पर कम से कम 200 रुपया अधिक वसूल रहे हैं। शायद कृषि विभाग तथा जिला प्रशासन किसानो को इस आतंक से मुक्त करने के ध्येय से ही बेतिया, बगहा तथा नरकटियागंज में नवम्बर 10 से 30, 2008 तक कृषि मेला का आयोजन किया। इसका माॅनिटरिंग खुद जिला पदाधिकारी दिलीप कुमार ने किया।
  इस मेला से जरुर किसान लाभान्वित हुए क्योंकि उन्हें खाद के लिए प्रति बोरा 200.250 रुपये अधिक नहीं देने पड़े, हाॅं प्रशासन की सहमति से खाद विक्रेताओं ने प्रति बोरा मात्र 10.15 रुपया उचित मूल्य से ज्यादा ढूलाई-पोलदारी खर्च के नाम पर जरुर वसूला। कृषि विभाग के सूत्रों के अनुसार इन तीनो अनुमंड़लों के मेलों में लगभग 15 हजार बोरा खाद, खासकर आइ0पी0एल0 तथा इफको का डी0ए0पी0, किसानों को उपलब्ध कराया गया। इसके अतिरिक्त जिंक सल्फेट तथा पोटाश आदि भी उचित दर पर ही उपलब्ध कराये गये। अगर इन मेलों का आयोजन नहीं होता तो खाद विक्रेता कम से कम प्रति बोरा 200 रुपया के हिसाब से किसानों से लगभग 30 लाख रुपये जरुर दिन दहाड़े लूट लेते। किसानों को इतने धन डकारने की मजबूरी होती अन्यथा उनकी रवी की खेती चैपटहो जाती। इसके लिए जिला पदाधिकारी दिलीप कुमार तथा जिला कृषि पदाधिकारी शैलेश कुमार धन्यवाद के पात्र हैं।
 परन्तु कुछ किसान नेता तथा कृषि के जानकार पूछते हैं कि क्या प्रशासन केवल खाद विक्री हेतु इन मेलों का आयोजन नहीं करा सकता था? आखिर क्या मजबूरी थी कि खाद तथा बीज का यह संयुक्त स्वयंवर मेला आयाजित कराना पड़ा ? सर्वविदित है कि कालाबाजारी का कलंक खाद विक्री पर ही लगता है। गेहू या अन्य बीजों की कालाबाजारी तो आजतक सूनने को भी नहीं मिला है। केन्द्र सरकार संभवतः वर्ष 2007 से 500 रुपया प्रति क्विंटल गेहू बीज पर अनुदान देती रही है। प्राप्त आंकड़ो के अनुसार वर्ष 2007 की गेहू बुआई के दौरान इस जिले के अधिकृत बीज विक्रेताओं ने करीब 5000 बैग यानि 40 किलो प्रति बैग के हिसाब से 2000 क्विंटल गेहू बीज किसानों से बेचा था। इस प्रकार वर्ष 2007 में किसानों को 10 लाख रुपयों की राहत केन्द्रीय अनुदान के वजह से प्राप्त हुयी थी।परन्तु बीज प्राप्त करने में किसी भी किसान को कोई परेशानी होने की सूचना या शिकायत वर्ष 2007 में सुनने को नहीं मिली थी। 
वैसे यह चर्चा जरुर हुयी थी कि बीज विक्रेताओ ने वास्तव में 2000 क्विंटल गेहू बीज नहीं बेचे थे। और कुछ हद तक कागजी खेल हुआ था जिससे वे बिना बीज बेंचे ही तथा बेचने की प्रक्रिया में होने वाली परेशानियों को बिना झेले सरकार के अनुदान राशि यानि 500 रुपया प्रति क्विंटल हड़प लिया जाय। निसंदेह यह सब कृषि विभाग के आकाओं के साठ-गाॅंठ के बिना संभव हो ही नहीं सकता। 
  जानकार बताते हैं कि जिला पदाधिकारी ने इन मेलों में खाद-बीज विक्री का बेमेल विवाह कराकर बीज विक्रेताओं के लिए आमदनी का पीटारा खोलने में जाने अनजाने मदद कर दिये। यह सब जिला पदाधिकारी कृषि विभाग के पदाधिकारियों के सलाह पर ही किये होगें। और यह सर्वविदित है कि कृषि विभाग के लोगों के दिल में किसानों के प्रति कितना प्रेम भरा है। अगर वास्तव मे इनके दिलों में किसानों के लिए थोड़ी भी रहम होती तो क्या खाद विक्रेता खादों की कालाबाजारी करने का साहस कर पाते। 
  जानकारों के अनुसार इन मेलों में खाद-बीज की संयुक्त विक्री, यानि एक बैग खाद उचित मूल्य पर उसी को मिलेगा जो एक बोरा गेहू का बीज लेगा, का निर्णय लेने के पीछे एक मात्र ध्येय यही था कि बीज पर प्राप्त केन्द्रीय अनुदान की राशि को ज्यादा से ज्यादा हड़पा जा सके। वैसे कृषि विभाग के शीर्ष पदाधिकारी तर्क देते हैं कि ऐसा करने का मुख्य लक्ष्य था कि किसानों को ज्यादा से ज्यादा सर्टिफायड़ बीज लगाने के लिए प्रेरित किया जाय जिससे की गेहू उत्पादन में वृद्धि लायी जाय क्योंकि अच्छे बीज से ही अच्छा फसल होता है।
  प्रश्न उठता है कि क्या इस जिले के किसान इतने मूर्ख हैं कि वे उत्तम बीज का उपयोग करने से भागते हैं? ज्ञातव्य हो कि विगत चार दशकों से यहाॅं के किसान नये नये उत्तम कोटि के बीजों का उपयोग करते आ रहे हैं तथा मौसम अनुकूल रहने पर यहाॅं गेहूं का उत्पादन भी काफी अच्छा होता रहा है। सरकारी अनुदान नहीं रहने पर भी यहाॅं के किसान विभिन्न जगहों से प्रति वर्ष कम से कम 1000 क्विंटल गेहू बीज प्राप्त कर वर्षों से बुआई करते रहे हैं। 1000 क्विंटल का अर्थ हुआ कम से कम 1000 हेक्टेयर खेत में नये बीजों की बुआई जिससे औसतन 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज के हिसाब से कम से कम 25,000 क्विंटल गेहंू की पैदावार होना। और इस कुल उपज को कम से कम 15,000 क्विंटल दूसरे वर्ष किसान बीज के रुप में करते हैं, जो वे काफी सस्ते दर पर अपने ग्रामीण किसानों से प्राप्त करते हैं, ज्यादा से ज्यादा 11-12 रुपया किलो की दर से, जबकि दूकानों पर उन्हें किसी भी हाल में 20 रुपया से कम में नहीं ही मिल पाता है।
  ज्ञातव्य हो कि एक बार सर्टिफायड बीज लगाने के बाद उससे पैदा हुए बीज को कम से कम अगले दो वर्षों तक बीज के रुप में उपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार किसान प्रत्येक तीसरे वर्ष स्वतः बिना किसी के दबाव या प्रेरणा के ही नये सर्टिफायड बीजों का उपयोग करते रहते हैं। आखिर उन्हें अपने पेट की चिन्ता है। और पेट की चिन्ता नौकरशाहों की सलाह से ज्यादा प्रभावकारी होती है।
ऐसी पृष्ठभूमि में अब प्रश्न उठता है कि आखिर किसानों को खाद के साथ बीज भी खरीदने के लिए क्यों बाध्य किया गया? कृषि विभाग से प्राप्त आकड़ों के अनुसार इन मेलों सहित बाद में भी जारी विक्री के दौरान पूरे जिले में इस रवी बुआई हेतु करीब 8,000 क्विंटल गेहॅंू बीज की विक्री अनुदानित दर पर हुयी है।
  इसका अर्थ है कि इस रवी मौसम में यहाॅं के किसानों को 40,00,000/-यानि चालीस लाख रुपये का अनुदान मात्र गेहॅंू बीज पर प्राप्त हुआ है। गेहॅंू बीज का इतने बडे़ पैमाने पर विक्री ही अपने आप में एक विकराल प्रश्न खड़ा करता है। विगत वर्षों में कभी भी बीज दुकानदारों ने इतनी मात्रा में किसी एक वर्ष मे गेहॅंू बीज की विक्री नहीं की हैं। ऐसे तो इतनी भारी मात्रा में गेहॅंू बीज की विक्री तो कृषि विभाग तथा जिला पदाधिकारी का पीठ थपथपवाने के लिए एक तरह से प्रमाणिक साक्ष्य है। परन्तु पुनः प्रश्न उठता है कि कभी भी इतनीमात्रा में गेहॅंू बीज नहीं बेचे जाने के उपलब्ध इतिहासके मद्देनजर इस जिले के बीज दुकानदार इतनी मात्रा में पहले से ही बीज कैसे मंगा लिए थे। किसी भी प्रमाणिक बीज का दाम 2000 रुपये प्रति क्विंटल से कम नहीे है। इसका अर्थ है कि दुकानदारों ने 8,000 क्विंटल गेहॅंू बीज के लिए कम से कम 1.5 करोड़रुपये की पूॅंजी तो जरुर लगायी होगी। क्या वे वास्तव में ऐसा किये होंगे, खासकरके पूर्व के वर्षों की विक्री के आंकड़ो का ख्याल करते हुए। जानकारों का आरोप है कि गेहॅंू बीज की इतनी विशाल मात्रा में विक्री होना विश्वास करने वाली बात है ही नहीं। वास्तव में इन कृषि मेलों में पर्दे के पीछेबहुत कुछ हुआ। दलालों ने सैकड़ों लोगों को कुछ रुपये के लालच में खड़ा कर जाली भूमि रसीदों के आधार पर खाद-बीज प्राप्त करने का षड़यंत्र रचा। खाद तो प्राप्त कर लिए गये, परन्तु बीज विक्री मात्र कागज पर कुछ लेन देन कर हो गयी। प्रायःकिसानों को जिस दिन खाद-बीज का रसीद कटता था, उसी दिन उन्हें बीज नहीं मिलता था, जबकि खाद मिल जाता था। और बाद में बीज की कागजी विक्री दिखाकर खेल खत्म कर दिया। इन दलालों को तो खाद से मतलब था जिसपर वे मनचाहा रुपया वसुल सकते थें। और बीज दुकानदारों को मतलब था कागज पर ही ज्यादा से ज्यादा विक्री दिखाने से जिससे कि उन्हें बिना पॅंूजी लगाये सरकारी अनुदान की राशि मिल जाय। आखिर यह सत्य नहीं है तो फिर ये बीज दुकानदार कैसे इतने बीज को मूल उत्पादकों से एक दो दिनों में प्राप्त कर लेते थें ? इस आरोप को मनगढ़ंत कहा जा सकता है। परन्तु इसकी सत्यता जानने हेतु आवश्यक है कि सरकार एक स्वतंत्र जाॅंच दल गठित कर यह जाॅंच करावे कि ये दुकानदार क्या वास्तव में मूल बीज उत्पादकों से ही सब बीज प्राप्त किये या कागजी खेल खेले, या फिर स्थानीय गैर प्रमाणित गेहॅंू बीजों को प्रमाणित बीज बोरों में भर कर किसानों को उपलब्ध करा दिये। इस जिले में एन0एस0सी0,इन्ड़ो-गल्फ, टी0एस0सी0, गंगा कावेरी, बी0आर0बी0एन0, दयाल सीडस आदि बीज उत्पादकों के बीज बेचे गये हैं। एन0एस0सी0 ने सीधे अपना विक्री केन्द्र खेालकर बीज बेचा। परन्तु अन्यों के बीज उनके डीलरों ने बेचा। 
  अतः आवश्यकता है कि इन उत्पादकोंके विक्री दास्तवेजों को जाॅंच कर यह पता लगाया जाय कि प0 चम्पारण के बीज दुकानदार कितनी मात्रा मे उनसे बीज प्राप्त किये। तब ही इस रहस्यमय स्थिति से उबरा जा सकता है। परन्तु क्या सरकार या जिला प्रशासन के लिए इसकी जाॅंच करानी संभव हो पायेगी। आखिर, यह सरकारी अनुदान की बडी राशि को डकारने का खेल है। इसमें छोटे बडे सभी संलिप्त हो सकते हैं!

  अपनी बातें: डाॅ. पी. सी. दूबे

  सबों को गणतंत्र दिवस की बधाईयाॅ  

कम से कम 26 जनवरी हमारे देश के कर्णधारो को शायद याद दिलाता है कि हमारा भारत महान के साथ-साथ एक गणतंत्र भी है। यानि यहाॅं जनता का राज है। परन्तु काश हमारे इन कर्णधारों को यह पूरे वर्ष याद रहता कि हमारा देश वास्तव में एक गणतंत्र है तथा वे इसके रक्षक तथा सेवक हैं। इसी हेतु राज्य के खजाने से उनकी सभी सुख-सुविधाओं की व्यवस्था होती है। अगर ऐसा होता तो देश तथा समाज का सबसे कमजोर व्यक्ति भी सिर उठाकर कहता कि वह भी आजाद है, वह एक मानव की सभी मर्यादाओं के साथ जीता है, भले ही उसे कुछ आर्थिक, प्राकृतिक कष्ट क्यों न होते हो।
  पर क्या ऐसी स्थिति आज इस देश/राज्य में है? ऐसा लगता है कि गणतंत्र दिवस अब मात्र राष्ट्रपति, राज्यपाल तथा विभिन्न संस्थाओं के प्रमुखों के लिए एक पारम्परिक पर्व/प्रथा के निर्वाह जैसा ही रह गया है। यह वैसा ही हो गया है जैसा कि समाज में अब ज्यादातर संतानें अपने वृद्ध माता-पिता को तो उनके जीवन काल में भर पेट भोजन तक नहीं देते, परन्तु उनके मरने पर सैकड़ों लोगों को भोजन कराते हैं, सर मुड़ाते हैं तथा दान करते हैं जिससे कि मृत आत्माओं को सुख-शांति मिले। 
  ठीक ऐसी ही स्थिति हमारे गणतंत्र की हो गयी है। साल भर हमारे देश, शासन, प्रशासन के कर्णधार आम गरीब, दलित, आदिवासी नागरिकों के खून पीने जैसा कुकृत्यों में संलिप्त रहते हैं, और 26 जनवरी को सिर पर टोपी लगाकर तिरंगा को पूरे तामझाम तथा सम्मानपूर्वक फहराते हैं। क्या हमारा गणतंत्र तिरंगों में ही सिमट कर रह गया है? क्या हमारे आदिवासियों, दलितों, गरीबों तथा महिलाओं के जीवन में यह तिरंगा रोज नहीं लहराना चाहिए?
  इस अंक में हमने कुछ ऐसे रिपोर्ट प्रकाशित किये है जिससे स्पष्ट हो जायेगा कि गरीबों, दलितों, महिलाओं तथा जनजातियों के लिए गणतंत्र मात्र मृगमरीचिका बनकर रह गया है। सरकार गरीब महिलाओं को सशक्त बनाने हेतु करोड़ों रुपये पानी के तरह बहा रही है, पर वे रुपये हमारे नरकटियांगंज प्रखंड की गरीब महिलाओं को दर्शन क्यों नहीं दे रहे हंै? दलितों तथा ग्रामीण बच्चों की शिक्षा हेतु सरकार नित प्रतिदिन बड़ी बड़ी घोषणायें कर रही है। पर हमारे रिपोर्ट बताते हैं कि यह सब एक नाटक है। तथा संबंधित महिलायें एवं बच्चे महाकवि जानकीवल्लभ शास्त्रि की पंक्ति ‘‘ उपर ही पी जाते हैं जो पीने वाले है, ऐसे ही जीते हैं जो जीने वाले हैं‘‘ को अपने जीवन में जीवन्त होते देख जीने के लिए बाध्य हैं।

हमने थरुहट में व्याप्त अग्रेजों के जमाने के पुलिसिया तांड़व का भी जिक्र किया हैं। हमारे थारु भाई आज भी ऐसे आतंक के साये में जीने के लिए बाध्य क्यों हैं, जबकि हमारी सरकार, हमारा प्रशासन सुबह शाम दलितों, आदिवासियों के उत्थान तथा कल्याण की ही माला जपता रहता है। अमरेश कुमार के आवेदन पर चम्पारण रेंज की डी0आई0जी0 महोदया ने जरुर कार्यवाही शुरु की हैं। पर प्रश्न उठता है कि हमारे थाना स्तरीय पदाधिकारियों का अंगे्रजी संस्कार कब बदलेगा? अगर यह संस्कार नहीं बदलेगा, तो गणतंत्र अर्थहीन ही रहेगा।
  तराई तरंग का ईश्वर से प्रार्थना है कि वे हमारे गणतंत्र के रक्षकों तथा सेवकों में गणतंत्र के संस्कार भर दे, अन्यथा हमारा गण्तंत्र दिवस एक रस्म अदायगी के सिवाय कुछ नहीं रह जायेगा।  


  राजनीतिक दल चंदे के धंधे में मस्त
  बिहार-उत्तर प्रदेश अव्वल

अफरोज आलम ‘साहील’
  दिल्ली से
  देश के लगभग एक हजार राजनीतिक दल अपने पार्टी फन्ड के नाम पर प्रतिवर्ष अरबों रुपये दान स्वरुप वसूल रहे हैं। परन्तु, ज्यादातर द अपने चंदे का व्यौरा देने से कतरा रहे हैं। उत्तर भारत के राजनीतिक दल तो इस मामले में अव्वल ही हैं।
  कांग्रेस की नेतृत्व वाली यू0पी0ए0 गठबंधन सरकार भले ही सूचना के अधिकार हेतु अधिनियम बना अपनी पीठ थपथपाते रहे, परन्तु इस कानून के निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले कई प्रमुख घटक दल दान से प्राप्त घनराशि के संबंध में किसी प्रकार की पारदर्शिता दिखाने से भाग रहे हैं।
  लेखक ने गत् वर्ष इस संबंध में यानि पार्टियों के चन्दे के धन्धे के बारे में सूचना के अधिकार के तहत जब चुनाव आयोग से जानकारियाॅं मांगी तब पता चला कि आयोग के पास पंजीकृत कुल 920 राजनीतिक दलों में से केवल 21 पार्टियां ही ऐसी हैं जो अपने चन्दे और आमदनी से संबंधित व्यौरा आयोग को बराबर सौंप रही हैं। बाकी सब व्यौरा देना है इसकी परवाह नहीं करते। व्योरा न देने वाले दलों के महारथियों में राजद के लालू प्रसाद यादव, लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान, झारखझड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन, बहुजन समाज पार्ट की मायावती जी आदि प्रमुख हैं।
ज्ञातव्य हो कि वर्ष 2003 में रेप्रेजेंटेशन आॅफ पीपुल्स एक्ट 1951 में एक संशोधन के तहत यह नियम बनाया गया कि सभी राजनीतिक दलों को धारा 29-स की उपधारा-1 के तहत फार्म 24-ए के माध्यम से चुनाव आयोग को यह जानकारी देने होंगे कि उन्हें प्रत्येक वित्तीय वर्ष के दौरान किन.किनव्यक्तियों और संस्थानों से कुल कितना चन्दा मिला। हालाॅकि राजनतिक दलों को इस नियम के तहत 20 हजार से उपर के चन्दों की ही जानकारी देने होते हैं, पर चुनाव आयोग से प्राप्त सूचना के मुताबिक वर्ष 2004 से 2007 के वित्तीय वर्षों में केवल 21 राजनीतिक दल ही यह व्योरा आयोग को देने का कष्ट उठाएॅ हैं। वैसे प्रति वर्ष के आधार पर मात्र 16 पार्टियाॅ ही एक वित्तीय वर्ष में चुनाव आयोग को अपने चन्दा का व्योरा सौंप रही हैं।
 परन्तु कानून के तहत दुर्भाग्यवश यह प्रावधान नहीं है कि आयोग के पास पंजीकृत सभी दलों को चन्दे से संबंधित जानकारी सौंपने की बाध्यता ही होगी। इसका लाभ उठाकर राजनीतिक दल अपने चन्दे के धन्धे पर पर्दा डालने में सफल होतें हैं और बेचारा चुनाव आयोग कुछ नहीं कर पाता। 
  जानकारो का कहना है कि कुछ राजनीतिक दल चन्दे तो जरुर लेते हैं पर उसका उपयोग राजनीतिक कार्यो के बदले शेयर या जवाहरात आदि खरीदने में कर रहे हैं। अतः यह प्रजातंत्र के हित में है कि इस बात की जाॅच की जाय की राजनीतिक दल किस प्रकार से अपने चन्दे का उपयोग कर रहे हैं। वैसे प्रजातंत्र के पूरजोर वकालत करने वाले कई हस्तियों का कहना है कि जो भी राजनीतिक दल अपने चन्दों का दुरुपयोग कर रहे हैं उनके खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत कार्यवाही की जानी चाहिए। यह निसंदेह विडम्बना है कि चुनाव आयोग के पास राजनीतिक दलों के काम काज, खर्च और पारदर्शिता तय करने के लिए कोई प्रभावी अधिका नहीं है। यह निसंदेह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक कलंक है।

  भारत-नेपाल
 विगत दशक में भारत ने नेपाल को दिये 7 अरब अनुदानः क्या यह वास्तविक लाभार्थियों तक पहुंचा भी?  
तरंग टीम
  भारत नेपाल को अपना निकटतम पड़ोसी ही नहीं, बल्कि सहोदर भाई मानता है। परिणामस्वरुप भारत की हमेशा पहल रही है कि नेपाल के आर्थिक विकास में ज्यादा से ज्यादा सहायता दी जाय। 1950 की भारत-नेपाल संधि के समय से ही भारत नेपाल की प्रगति के लिए आकाश पाताल एक करता रहा है। अरबों रुपयें अनुदान में दिये हैं। फिर भी नेपाल के प्रबुद्ध नागरिक तथा भारत-नेपाल की आर्थिक सहयोग प्रक्रिया को नजदीक से देखने और जानने वालों का दावा है कि भारत सरकार का नेपाल को मदद देने की पवित्र मंशा के बावजूद नेपाल को दिये गये अकूत धन का कुछ खास लोगों द्वारा बंदर बाॅंट कर लिया जाता रहा है तथा विकास की कागजी खानापूर्ति की जाती रही है। यानि भारतीय दूतावास के निचले स्तर से लेकर शीर्ष पर बैठे पदाधिकारी नेपाली सरकारी एवं गैर सरकारी दलालों से सांठ गाठ कर भारत द्वारा प्रदत राशि को ड़कारते रहे हैं। 
  भारतीय राजनयिकों के बारे में काठमांडू स्थित एक भारतीय पत्रकार कहते हैं कि इनको अपने तीन साल के कार्यकाल में तीन स्तरों से गुजरना पड़ता हैं: पहला वर्ष लर्न यानि सीखना, दूसरा वर्ष अर्न यानि कमाना तथा तीसरा वर्ष रिटर्न यानि देश वापस हो जाना। इसके अतिरिक्त इन राजनयिकों का कोई कार्य न भारत हित में, न नेपाल की गरीब जनता के हित में होता है। आश्चर्य तो इस बात की है कि भारत द्वारा दी गयी विशाल सहायता राशि का उपयोग विरले ही नेपाल के तराई यानि मधेश क्षेत्र में विकास कार्य सम्पन्न कराने में होता हो। 
  जानकारों के अनुसार पूरी राशि का करीब 90 प्रतिशत पहाड़ी इलाकों में खर्च करने की दावा की जाती रही है, जबकि भारतीय मूल के नेपाली मधेशियों के लिए बहुत ही कम खर्च किये गये है। इसका कारण कदापि यह नहीं रहा है कि भारतीय राजनयिक पहाड़ी मूल के लोगों की गरीबी से ज्यादा द्रवित होते रहे हैं,बल्कि यह कि पहाड़ों में किये गये कागजी कार्यों का सत्यापन असंभंव रहा है, खासकर विगत दश वर्षों में जब वहाॅं माओवादियों का गुरिल्ला साम्राज्य कायम रहा। परन्तु नेपाल की तराई में किया गया कोई भी कागजी विकास कार्य का आसानी से भंड़ाफोड़ होने का खतरा बना रह सकता है। अतः भारतीय दूतावास में स्थित नेपाल के उद्धारकत्र्ता पहाड़ों के प्रति असीम कृपा प्रदर्शन करते रहे हैं तथा बड़े ही आराम से विकास राशि को बिना ढ़कारे ही ड़कारते रहे हैं।
  दिल्ली स्थित तराई तरंग के सम्पादकीय सलाहकार अफरोज आलम ‘साहिल‘ द्वारा सूचना अधिकार अधिनियम के तहत प्राप्त आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1998 से 2008 के बीच भारत ने नेपाल को करीब 700 करोड़ यानि 07 अरब रुपये विकास सहायता राशि मद में दिया है। परन्तु स्मरण रहे कि इस अकूत राशि का विकास कार्यों में खर्च नेपाल सरकार के लोगों द्वारा नहीं किया जाता, वरन भारतीय दूतावास के राजनयिकों के इशारे पर होता है। अतः इन भारतीय विभूतियों को मलाई चाभने का काफी अवसर मिल जाता है। वैसे भी यह राशि अगर नेपाल सरकार के पदाधिकारियों के हाथों में भी जाती तो इसका परिणाम दूसरा कुछ नहीं होता। अतः भारतीय दूतावास के लोग अच्छा ही करते हैं कि भारत का धन किसी तरह से पुनः भारत वापस ले आते हैं।  

लौरिया प्रखंड
  महीनों से विद्यालय बंद, मध्यान भोजन ठप
  प्रशासन अलख जगाने में व्यस्त, बच्चे बकरी चराने में मस्त

रत्नेश गौतम
प्रमुख संवाददाता, नरकटियागंज अनुमंडल
  लौरिया प्रखंड के साठी ईलाके स्थित बहुअरवा पंचायत अंतर्गत बहुअरवा इंदू टोला में स्थापित सरकारी प्राथमिक विद्यालय विगत वर्ष के जून माॅंह से बंद पड़ा है। नतीजन करीब 700 जनसंख्या वाले दलित बहुल इस गाॅंव के बच्चे आज बकरियाॅं चराने तथा सड़कों पर निरुदेश्य भटकने को मजबूर हैं। परन्तु इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। वैसे शिक्षा विभाग सोया नहीं है और ‘‘घर-घर अलख जगायेंगे, हम बदलेंगे जमाना’’ की राग अलापने के अभियान में, कागज पर ही सही, तन, मन तथा धन से व्यस्त है, आखिर इसके आकाओं को तो शिक्षा समृद्धि हेतु बह रही अरबों रुपये की गंगोत्री में तो डूबकी लगाना है न। अगर यह सत्य नहीं होता तो फिर इंदू टोला के बच्चे 6 माॅंह से अकारण विद्यालय बंदी का दंश क्यों झेलते?
उक्त गाॅव के वृजबिहारी प्रसाद ‘तराई तरंग’ को बताते हैं कि सितम्बर 2006 के पहले उनके गाॅंव के बच्चे दूर दराज गाॅंवो के विद्यालयों में पढने जाते थे।परन्तु गाॅववालों तथा स्थानीय मुखिया समदा खातुन के प्रयास से विद्यालय संचालन हेतु 17 सितम्बर, 2006 को विद्यालय शिक्षा समिति का गठन कर गाॅव में स्थित पोखरा के किनारे खुले आकाश में विद्यालय चलना प्रारम्भ हो गया। ग्रामीणों में सरकार के प्रति विश्वास जगीं। गाॅव के दलितों को लगा कि सरकार उनके कल्याण के लिए सिर्फ घोषणायें ही नही करती, बल्कि उसे धरती पर भी उतारती है।
  खैर गाॅव के दलितो़ तथा अन्य जातियों के बच्चे विद्यालय आने लगे और प्रति दिन इस नारा कि ‘‘ आध रोटी खाएँँगे, फिर भी पढ़ने आयेगें’’ के साथ पढ़ाई यज्ञ में जुटने लगे। इसी क्रम में बरसात समाप्त हो गया और शरद ऋतु आ गया। ग्रामीणों को यह चिंता सताने लगी कि आखिर जाड़े में बच्चे खुले आकाश के नीचे पढ़ेगे कैसे?
फर शुरु हुआ विद्यालय भवन निर्माण कराने की पहल और अंततोगत्वा यह प्रयास सफल हुआ। तत् पश्चात पोखरा किनारे ही अवस्थित गैरमजरुआ मालिक भूमि में 15 डीसमिल भूखंड को चयन कर नरकटियागंज भूमि सुधार उप समाहर्ता तथा अनुमंडलाधिकारी ने अग्रेतर कार्यवाही हेतु लौरिया के अंचलाधिकारी को भेज दिया। अंचलाधिकारी महोदय ने भी त्वरित निष्पादन हेतु भवन निर्माण कार्य कराने का आदेश ज्ञापांक -76, दि0 09.02.07 को प्रखण्ड शिक्षा पदाधिकारी, लौरिया को दे दिये। परन्तु इस आदेश का कोई प्रतिफल आज तक नहीं निकला है, जबकि जिले में अन्य जगहो पर भवन पर भवन बनाये जा रहे है।
बच्चें जाड़े के भी प्रहार को सहकर पढ़ाई जारी रखे। उन्हें आशा थी कि जल्द ही यह दलित प्रेमी सरकार इस दिशा में कोई न कोई ठोस कदम अवश्य उठायेगी। परन्तु उनकी आशा पर पानी फिरता ही गया। और विद्यालय को पूर्ण ग्रहण उस समय लगा जब पहली बार यहाॅं मार्च 2007 से मध्यान भोजन कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। यह कार्यक्रम चल ही रहा था तभी पता चला कि इसमें गडबडी हो रही है और विद्यालय के प्रधान शिक्षक, विशुनदेव हजरा, खादान तथा राशि का गबन कर रहे है। ग्रामीणों ने निर्णय लियाकि इस संदेह के संबंध में श्री हजरा से ही जानकारी ली जाय। तब वृजबिहारी साह तथा विद्यालय शिक्षा समिति के सचिव ने बी0आर0सी0 लौरिया जाकर प्रधान शिक्षक श्री हजरा से अपने संदेह से अवगत कराये। श्री हजरा कोई समुचित जबाब नहीं दे सके, बल्कि हॅंसते-हॅंसते उनकी बात टाल गये। परन्तु श्री हजरा से मध्यान भोजन में हो रही गबन की शिकायत जरुर कुछ रंग लायी। मई07 आते ही बच्चों को मध्यान पोषाहार मिलना ही बन्द हो गया। कुछ समय पश्चात विद्यालय में पठन पाठन ही बन्द हो गया। बैठक और यह निर्णय लिया जाना कि जिला पदाधिकारी से मिलकर विद्यालय में हो रहे कुकृत्यों की जानकारी दी जाय और ऐसा हुआ भी।ग्रामीणों ने अपना पहला आवेदन 14.08.08 को जिलाधिकार को दिया। इसमें पोषाहार गबन व विद्यालय बंद होने की जानकारी गाव के समाजसेवी बृजबिहारी साह, शि0 समिति अध्यक्षा संगीता देवी, गा्रमीण बुधई पटेल, विनय कुमार, टेणी मियां, भीमल हजरा आदि के द्वारा लिखित रुप में दी गयी। फिर दूसरा 11.09.08 को, तीसरा 21.10.08 को, परन्तु सभी आवेदन सरकारी कुड़ेदान का आहार बन गया, ऐसा ग्रामीणों को प्रतीत हो रहा है। 
  यह निसंदेह दलितों तथा अल्प संख्यकों के लिए शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था करने का ढोल पीटने वाली नीतीश सरकार की पोल खोलने वाली घटना है। अन्यथा जिला पदाधिकारी ग्रामीणों के आवेदन पर कार्यवाही जरुर करते, वे इस पर कुंभकर्णी चादर ओढ़कर नहीं सोते तथा शिक्षक पोषाहार के साथ कदापि चंपत न होते।
उपरोक्त आवेदकों का यह भी आरोप है कि वे स्थानीय मुखिया के पास भी कई बार गये, लेकिन उनके द्वारा भी कोई सार्थक पहल नहीं की गई, बात आई ै, गई जैसी हो गयी। ग्रामीणों का कहना है कि सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि विद्यालय स्थापना की तिथि की भी जानकारी किसी को नहीं है। वृजविहारी साह जो इस कुव्यवस्था के विरुद्ध लड़ाई लड़ने में जुटे हैं का कहना है कि अब हार थक कर वे सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत जिला शिक्षा अधिक्षक से इस संबंध में जानकारी मांगे हैं, देखना है, सरकार का यह कानून भी सरकारी महकमा मानता है या नहीं। परन्तु वे अत्यन्त आहत हैं कि उनके गाॅव के बच्चें विद्यालय बन्द होने के पश्चात पुनः बकरी चराने के अपने पुराने धन्धे में जुट गये। शायद सरकार की भी यहीं मंशा है कि दलितों तथा गरीबों के बच्चें पढ़ लिख जायेंगे तो फिर बकरी कौन चरायेगा और बड़े नेताओं तथा साहबों को अच्छे खस्सी का माॅंस खाने को कैसे मिलेगा। आखिर सरकार हाथी सदृश्य होती है, जिसके खाने के दांत अलग तथा दिखाने के दांत अलग होते हैं।  

  नरकटियागंज प्रखंड़  
  बैंक प्रबंधक की मनमानी जोरों पर, 
  त्रस्त हैं स्वयं सेवी समूहों की गरीब महिलायें !

योगेन्द्र प्रजापति
संवाददाता, नरकटियागंज प्रखंड़ 
राज्य एवं केन्द्र सरकारों का पूरजोर प्रयास है कि दूर दराज गांवों की सबसे कमजोर महिलाओं को भी आर्थिक दृष्टिकोण से अपने बाहुबल के सहारे जीवन यापन करने हेतु सशक्त किया जाय। दान या अनुदान न देकर उन्हें आसान किस्तों तथा कम व्याज पर बिना कोई सुरक्षा राशि लिए कर्ज दिया जाय तथा उन्हें विभिन्न प्रकार के रोजगारों से संबंधित प्रशिक्षण देकर सक्षम बना दिया जाय जिससे वे छोटे छोटे धन्धे शुरु कर अपना तथा अपने परिवार का पेट तो पाले ही, साथ-साथ कर्ज देने वाले ग्रामीण इलाकों के बैंकों की भावी रीढ़ की हड्डी भी बन सके। सरकारों का यह प्रयास आन्घ्र प्रदेश में सफलीभूत हुआ है। बिहार में भी कहीं कहीं सफल हुआ है। बिहार अपेक्षित सफलता न मिलने के लिए सरकार के जिम्मेदार पदों पर आसीन पदाधिकारी तो हैं ही, वास्तविक दोषी तो संबंधित बैंक पदाधिकारी ही हैं जो गरीब महिलाओं को कर्ज देने हेतु सरकार द्वारा दी गयी अकूत राशि को भी देने से सौ कोस दूर भागते हैं। कारण रहस्यमय लगता है। सर्वविदित है कि गरीब महिलायें कर्ज चुकाने में सबसे आगे रहती हैं। फिर भी बैंक इनके साथ सौतेला व्यवहार क्यो करते हैं? क्या इसलिए कि ये गरीब प्राणी इनके पाॅकेट गरम नहीं कर सकती?यह निसंदेह बैंको के लिए एक यक्ष प्रश्न है जिसका जबाब इन्हें देना होगा, अन्यथा उनके लिए इस कलीयुग की दैविक अवतार रुपी महिलाओं के क्रोध की अग्नि को सहना कठिन हो जायेगा।
  फिर भी इसकी परवाह, खासकरके नरकटियागंज प्रखंड़ के केहुनिया ग्राम स्थित, सेन्ट्रªल बैंक आॅफ इन्ड़िया शाखा को तो कदापि नहीं है। ज्ञातव्य हो कि इस प्रखंड के़ अंतर्गत परोरहां पंचायत के ग्राम परोरहां में गठित स्वयं सहायता -ज्योति महिला विकास समिति को एस0जी0एस0वाई0 योजना के तहत डी0आर0डी0ए0 से रिभौलभिंग फॅंड की प्राप्ति 15.11.06 को ही हो गई, परन्तु अभी तक उपरोक्त बैंक के शाखा प्रबंधक द्वारा समूह को स्वरोजगार हेतु मैचिंग शेयर नहीं दी गयी है। समूह के पदाधिकारीगण जानकी देवी, विमला देवी व सुदामा देवी ‘तराई तरंग’ को बताती हैं कि उक्त ऋण हेतु उपरोक्त बैंक के शाखा प्रबंधक उन्हें दर्जनों बार बैंक बुला चुके हैं, परन्तु अभी तक ऋण का दर्शन तक न हो सका है, जिससे कि वे कोई स्वरोजगार कर सके जबकि उन्हें विभिन्न रोजगारों हेतु समुचित प्रशिक्षण भी प्राप्त है। उनका आरोप हैं कि बैंक जाने पर मुख्य शाखा प्रबंधक कहते है कि सहायक शाखा प्रबंधक उनके गाॅंव में जाकर समूह का जायजा लेंगे, परन्तु चार बार समय देने के बाद भी सहायक शाखा प्रबंधक, अशोक सिंह, उनसे, यानि समूह की महिलाओं से, न कभी मिले और ना ही उनका कार्य ही किये। समय देकर वे उनके गाॅव जरुर आये लेकिन समूह की जांच हेतु नहीं, बल्कि के0सी0सी0 के लिए।यही व्यथा ग्रामीण महिला विकास समिति -परोरहां दुसाध टोली की है। समूह अध्यक्षा सागम देवी बताती हैं कि सरकार कह रही है कि एस0एच0जी0 स्वरोजगार हेतु उससे सहयोग ले, और इधर बैंक हैं जो ऋण दे नहीं रहे। उनके समूह को भी 23.2.2008 को ही रिभौलभिंग फॅंड का आवंटन हुआ है, परन्तु ऋण मिलना तो दूर अभी बैंक द्वारा उक्त राशि को भी उनके बचत पास बुक में नहीं चढ़ाया गया और तो और बैंक है केहुनिया के नाम पर परन्तु चलता है वहाॅं से 8 किलो मीटर दूर नरकटियागंज हरदिया चैक पर जहाॅं आने जाने में भी उन्हें काफी परेशानीहोती है। निजी सवारी का भाड़ा कर जाना पड़ता है, जिसमें प्रति व्यक्ति अप-डाअन 20 रुपया किराया देना पड़ता है। फिर भी वे पेट काटकर बार बार बैंक जा ही रही हैं। उनका कहना हैं कि देखते हैं कबतक मैनेजर साहब मैचिंग राशि नहीं देते हैं। वैसे उन्होने गत वर्ष नवम्बर माॅह में इस संबंध में जिला पदाधिकारी तथा अग्रणी बैंक प्रबंधक से भी शिकायत की थी, लेकिन वे दोनो भी कोई सकारात्मक कार्यवाही नहीं कर सके। उन्होने निर्णय लिया हैं कि वे एक बार और जिला पदाधिकारी महोदय से मिल कर अपना दर्द सुनायेगीं, अगर वे कुछ कर पाते हैं तो ठीक है, अन्यथा वे बैंक का घेराव कर भीषण प्रदर्शन करेगी, आवश्यक हुआ तो वे अनिश्चितकालीन घेरा ड़ालो, ड़ेरा ड़ालो अभियान भी शुरु करने को बाध्य होंगी।
ये तो हुई रिभौलभिंग फॅंड प्राप्त समूहों की स्थिति। परन्तु यहीं खत्म नहीं होता है उक्त बैंक का एस0जी0एस0वाई0 एवं एस0एच0जी0 के प्रति कुव्यवहार। परोरहां पंचायत के अन्य समूहों से जुड़ी शारदा देवी, मीरा देवी, गुलजारो देवी तथा सुशीला देवी बताती हैं कि उनके समूहों का चयन रिभौलभिंग फॅंड प्राप्त करने हेतु महिला प्रसार पदाधिकारी, नरकटियागंज, द्वारा अगस्त 2008 में ही किया जा चुका है, परन्तु अभी तक शाखा प्रबंधक महोदय द्वारा उनके चारो समूहों के आवेदनों का ग्रेड़िग तक भी नहीं किया गया है। अगस्त 08 से अबतक उनलोगों को 10 बार ग्रेड़िग हेतु बैंक शाखा में बुलाया गया है, परन्तु शाखा प्रबंधक बराबर व्यस्तता का राग अलाप कर उन्हें टाल देते हैं। उनका प्रश्न है कि अगर मैनेजर साहब को समय नहीं है तो उन गरीबों को बुलाते ही क्यों हैं। उनका यह भी प्रश्न है कि अगर हैरान करने के बाद भी ऋण या रिभौलभिंग फॅंड नहीं ही मिलना है तो फिर डी0आर0डी0ए0 या प्रखंड़ उन्हें बैंकों से जोड़ कर उनके मन में विकास की झूठी आशा क्यों जगाता है? क्या सरकार सिर्फ धोषणायें ही करेंगी और बैंक तमाशा? वे अब बाध्य होकर सोचने लगी हैं कि सरकार उन गरीब महिलाओं के साथ घिनौना मजाक कर रही है, तकदीर ने तो उन्हें गरीबी के दहलीज पर तो खड़ा कर ही रखा है और बैंकों की गतिविधियाँँ अगर इसी तरह बरकरार रही तो उनको लगता है कि उनका सारा समय दौड़ा-दौड़ी में ही व्यतीत हो जायेगा और उनके बाल बच्चों को तो दाने के लाले पड़ ही जायेंगे, बेचारे चूहें भी भूख से पटपटाकर काल के गाल में समाने लगेगें।
   

  पश्चिम चम्पारण 
  थरुहट में आज भी हैं अंगे्रजी आतंक
बिना थानेदार को चढ़ावा दिये थारु न जन्म लेते हैं, न मरते हैं  
  क्या ये भी कभी आजादी की सुबह देख पायेंगे ?
पवन पाठक  
  भारत-नेपाल सीमा पर अवस्थित प. चम्पारण के गौनाहा प्रखण्ड की पुलिस अब यहाँ के मूल निवासी थारू जनजाति के युवकों को माओवादी बनाने या घोषित करने की राह पर चल पड़ी है। यहाँ के निरीह थारू समुदाय आज भी पुलिसिया हथकंडे और रौब-रूआब के आगे इस कदर डरे-सहमें दिखते हैं जैसे वहाँ आज भी वे गणतंत्र भारत में न रहकर ब्रिटिश कालीन पुलिस के रहमो करम पर ही रहने को अभिशप्त हैं।
  सरकार के मुखिया नीतीष कुमार तथा पुलिस महानिदेषक डी एन गौतम भले ही पुलिस की छवि जनता के मित्र के रूप में बनाने के लिए कवायद कर रहे हंै। लेकिन हकीकत इसके विपरीत है। प. चम्पारण जिले में उक्त दोनों के प्रयास का कोई असर नहीं दिख रहा है। और पुलिस की छवि पहले से और डरावना बन गई है। इसका ताजा उदाहरण गौनाहा थानाध्यक्ष विनोद यादव की करतूते हंै।

सिठ्ठी पंचायत अन्र्तगत विजयपुर गाँव के थारू जनजाति युवक अमरेष कुमार ने चम्पारण क्षेत्र के डीआईजी प्रीता वर्मा को एक आवेदन देकर थानाध्यक्ष की करतूतों को उजागर किया है। इस आवेदन में थानाध्यक्ष पर अरोप लगाया गया है कि उन्होंने अमरेष की खतियानी जमीन से कटे शीषम के सुखे पेंड को पुलिसिया धांैस जमाकर उसके दरवाजे से नवम्बर 30, 2008 को उठवा ले गये। विरोध करने पर उसके परिजनो के साथ थानाध्यक्ष ने अभद्र ब्यवहार किया, इनता ही नहीं उसे जप्ति सूची भी नहीं दी गई। काफी मशक्कत के बाद थानाध्यक्ष ने जप्ति सूचि देने का आश्वासन दिया। कई दिनों तक अमरेश थाने का चक्कर लगाता रहा और थानाध्यक्ष उसे टरकाते रहें। इसी क्रम में जब उसने जनवरी 4, 2009 को थाना परिसर से लकड़ी गायब पाया तो थानाध्यक्ष से इस बात की पूछ-ताछ की। आग बबूला हुए थानाध्यक्ष ने उससे कहा कि उक्त लकड़ी से डीएसपी और एसपी के लिए फर्निचर बन गया है। तुम्हें जहाँ जाना हो जाओं
ज्यादा फड़फड़ाओगे तो माओवादी घोषित कर जेल भेज दँूगा। थानाध्यक्ष की इस करतूत की शिकायत अमरेश ने डीआईजी 
से की। डीआईजी ने नरकटियागंज एसडीपीओं को इस मामले की जाॅच का जिम्मा सौपा है। 
 थानध्यक्ष की यह कोई पहली करतूत नहीं जिसे लिपा-पोती किया जा सके।
इसी पंचायत के फचकहर ग्राम के गुमस्ता 
राम प्रसाद महतो को पुलिस ने मनमाने ढ़ंग से वर्षो पूर्व एक मामले में गवाह बना दिया, चूकि इसकी जानकारीद्वारा गवाही की नोटिस की कोई जानकारी नहीं मिल सकी। न्यायालय से वारंट निर्गत होने के बाद राम प्रसाद ने न्यायालय में उपस्थित हो वारंट रिकाॅल प्राप्त कर थाने को प्राप्त करा दिया। फिर भी गौनाहा थाने की पुलिस उसे बार-बार गिरफ्तार करती रही है। उसने कम से कम चार बार थाने में रिकाॅल की ं उसकी गिरफ्तारी की जाती रही। अािखरी गिरफ्तारी जनवरी के प्रथम सप्ताह में हुई थी। राम प्रसाद थानाध्यक्ष को बार-बार कहता रहा कि उसने पूर्व में ही रिकाॅल जमा करा दिया है । उसने थानध्यक्ष को विगत मुखिया चुनाव के समय भी उसे नौमिनेषन देने से रोकने की बात बताते हुए उसके द्वारा वारंट रिकाॅल जमा करने की बात बताई और तब जा कर वह अपना नौमिनेषन दाखिल किया था, किन्तु थानाध्यक्ष बातों को मानने को कतई तैयार नहीं थे। और न तो इस विषय में वे किसी से कुछ पुछना ही मुनासीब समझतें थे। लिहाजा वे थारू जनजाति के एक संभ्रात सामाजिक ब्यक्ति राम प्रसाद को 12 घंटे से अधिक हाजत में बंद रखें। तराई तरंग को अपना दुखड़ा सुनाते हुये राम प्रसाद ने थानाध्यक्ष पर अरोप लगाया कि रात में थानध्यक्ष ने उसके परिजनों से ढ़ाई सौ रूपये रिष्वत लेकर छोड दिया। और कहा कि अगले दिन 500 रूपये लेकर आना तब तुम्हारा वारंट सूचि से नाम काट दिया जायेगा।
वह कई बार की गिरफ्तारी से अजीज आ चुका था लिहाजा उसने 500 रूपये देकर थानाध्यक्ष से वारंट सूचि से नाम काटने की गुहार लगाई। अब भी उसका नाम कटा या नहीं इसकी जानकारी उसे नही मिल सकी है। यह तो थारू जनजाति बहुल इलाके में पुलिस के हैरतअंगेज कारनामों का छोटा उदाहरण है। चूकि थारू जनजाति बहुल इस क्षेत्र में गुमास्ता द्वारा ही अधिकतर विवादों का निपटारा कर दिया जाता है, जिससें आपसी विवादों से संबंधित मामले थाना नहीं पहुँच पाते हैं। फलस्वरूप पुलिस की कमाई बाधित होती है। लिहाजा पुलिस निरीह थारूओं को धमका कर पैसे ऐंठने के साथ-साथ अवैध खनन एवं वन तस्करों से साठ-गाॅठ कर अपनी काली कमाई को अंजाम देती है। नेपाल सीमा से सटे होने के कारण माओवादियों का इस क्षेत्र में आना जाना रहता है, लिहाजा पुलिस निरीह थारूओं को माओवादी बताकर उनकी गिरफ्तारी का भय दिखाकर पैसे की उगाही करती है। पिछले अक्टूबर महीने में अवैध खनन के पत्थर से लदे ट्र्रैक्टर टेलर को थाना ने 5000 रूपये चढ़ावा के बल पर छोड़ दिया था, लेकिन सूत्रों द्वारा जानकारी पाकर डीएफओ श्री चन्द्रषेखर ने इसकी सूचना पुलिस अधीक्षक के एस अनुपम को दी। संयोगवष पुलिस अधीक्षक जो उसी क्षेत्र में थी,ा उन्होंने थाना को उक्त ट्रैक्टर-टेªलर की जप्ति का आदेश दिया। आदेश मिलते ही थानध्यक्ष के पैरो तले जमीन खिसकने लगी और वे बगैर देरी किये उक्त ट्रैक्टर-टेªलर को जप्त करने बिजयपुर गाँव जा पहुँचे। महिलाओं ने इस जप्ति का कड़ा प्रतिरोध किया। उनका कहना था कि जब रूपये ले लिया तो फिर जप्ति कैसा?
  थानध्यक्ष एसपी के आदेश का हवाला देते हुए गिड़गिड़ाना शुरू किये कि अगर इसे हम जप्त नही करते हैं तो एसपी मेरी नौकरी खा जायेगी। हृदय से साफ सुथरी थारू महिलाओं ने थानाध्यक्ष की नौकरी के नाम पर ट्रैक्टर-टेªलर को जाने दिया।      बहरहाल थानध्यक्ष के खौफनाक हरकत से थारू समुदाय के लोग भयभीत हंै। तराई तरंग ने पुलिस की कारगुजारियों की सत्यता की जानकारी चाही तो पुलिस पर लगे अधिकतर अरोप सही साबित हुए। पुलिस की इस विद्रूप छवि ने 
सुशासन के सपने को तार-तार कर दिया है। उधर थानाध्यक्ष ने अपने उपर लगे सभी आरोपों को सिरे से खारीज कर दिया।

व्यक्तित्व  
  टोपी कश्मीरी, पतलुन मराठी, पर मन में है चम्पारण का मोह 
  - शुकदेव प्रसाद
तरंग टीम
हाॅ, यह कोई अतिश्योक्ति नहीं है। आज मौका मिलते ही गांव के सक्षम लोग शहर, वह भी दूसरे राज्य के अच्छे शहर, के तरफ आंख मूंदे पलायन करने से चुक नहीं रहे हैं।एक बार वहाॅं अपना पैर जमाते ही वे पुनः गांव आने की बात तो दूर, आने की सोच को भी मन में फटकने नहीं देते। परन्तु अदभूत मिजाज है, मन है नौतन प्रखंड के बन्हौरा सोता ग्राम में 1944 में जन्में शुकदेव प्रसाद जी का। 
 ये 37 वर्षों तक उड़िसा की राजधानी भुवनेश्वर तथा प्रसिद्ध हीरा कुंड़ बांध के समीप बसे शहर सम्बलपुर में एक प्रतिष्ठितअर्ध सरकारी कम्पनी में उच्चे पदों पर कार्यरत रहें। परन्तु अवकाश प्राप्त होते ही उनके मन में चम्पारण की मिट्टी के प्रति जड़ जमाया मोह इनपर हावी हो गया, और ये सबकुछ समेटे तथा कूच कर दिये चम्पारण की ओर। श्री प्रसाद तराई तरंग को बताते हैं कि उड़िसा में कार्यरत कई विदेशी कम्पनियों ने उन्हें मोटा रकम देने का लालच भी दिया, पर उनके मन में 37 वर्षों से सुसुप्त रहे चम्पारण मोह ने उनके मायाजाल में फॅंसने नहीं दिया। इनका कहना है कि उन्हें अब अधिक धन की आवश्यक्ता ही क्या है। उनकी तीनों बेटियों की अच्छे घरानों में शादी हो गयी हैं। इनका बड़ा बेटा साॅफ्ट वेयर इंजिनीयर है तथा अमेरिका में कार्यरत है। पुस्तैनी जमीन भी काफी है। अतः वे क्यों अब 64 वर्ष के उम्र में भी दूसरे के अधीन रहे। 
 शुद्ध शाकाहारी तथा गायत्री परिवार से जुड़े श्री प्रसाद कहते हैं कि तुलसी दास की पंक्ति ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’ के वे पर्वतक हैं। परन्तु वे कहते हैं कि दूसरों की सेवा करना मनुष्य की नीयति के साथ-साथ स्वभाव है। वे बताते हैं कि अपनी मिट्टी पर आकर तो वे ज्यादा बेचैनी से लोगों की सेवा तथा विकास में जुट गये हैं। वे कहते हैं ‘‘आखिर मुझे तो इस मिट्टी का कर्ज भी तो उतारना है। 37 वर्षों तक तो मैने अपना पेट भरा। अभी ही तो मौका मिला है कि जिस मिट्टी का अन्न खाकर, जिन लोगों का सहयोग तथा आशीर्वाद पाकर मैं सक्षम बना उनका भी तो कुछ सेवा करु।’’
 निसंदेह विगत दो वर्षों में शुकदेव जी एक युवा सैनिक के तरह अपने गांव तथा इलाके की सेवा में जुटे हैं। इनके प्रयास से इनके पिता द्वारा दी गयी भूमि पर स्थित प्राथमिक विद्यालय में अब आठवी कक्षा तक पढ़ाई हो रही है। इनका सपना है इसे 12 वी तक कराने की। इन्होंने अपने गांव में एक स्वास्थ्य केन्द्र की भी मंजूरी करा ली हअब उनके गांववालों को बैंक सेवा के लिए दूसरे जगह नहीं जाना पड़ेगा। अगलेे कुछ मांहों में संभवतः पंजाब नैशनल बैंक की शाखा यहाॅ कार्य करने लगेगी। ये तो हुए विकास कार्य। श्री प्रसाद का दूसरा सेवा अभियान है अपने गांव तथा अन्य लोगों की बेटियों की शादी कराने में सहयोग देना। विगत दो वर्षों में ये करीब एक दर्जन लड़कियों की शादी करा चुके हैं। कहते हैं कि ‘‘हमारे समाज में लड़कियों का विवाह कराना सबसे बड़ा धर्म है, नहीं तो तिलक-दहेज का रोग हमारे समाज को खोखला बनाते जा रहा है।
  शुकदेव जी की चाहत पूर्णतः सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक कायों में रमे रहना है।परन्तु 64 वर्ष की उम्र के बावजूद इनके युवा सदृश्य स्वभाव तथा समाज के सभी वर्गों में इनके बढ़ते प्रभाव को देखकर कुछ राजनति के खिलाड़ी भी इनपर डोेरे ड़ाने में सफल हो गये हैं तथा उन्हें प्रेरित कर जदयू के जिला किसान प्रकोष्ठ के महासचिव पद को स्वीकार करवा लिए हैं। वैसे श्री प्रसाद का इसे स्वीकार करने के पीछे एक मात्र ध्येय है कि ये इसके बदौलत कुद लोगों का यथासंभव कल्याण करा सके। आखिर प्रजातंत्र में राजनीतिक दल की अहम भूमिका होती है। इनके जानने वाले कुछ लोग कहते हैं कि श्री प्रसाद जैसा व्यक्ति अगर उनका विधायक हो जाय तो एक नयी रचनात्मक राजनीतिक संस्कृति का बीजारोपण हो सकता है। 

बाल्मीकि व्याघ्र रिजर्व
  आनन फानन में गाड़ा गया हिंसक वन पशु बच्चा
  कोई चीता, कोई बाघ, पर वन पदाधिकारी कहते फिशिंग कैट !  
अमरेश कुमार थारु
 गौनाहा प्रखंड
  विगत जनवरी 08, 2009 को सुबह बाल्मीकि टाइगर रिजर्व के मंगुराहा वन रेंज यानि प0 चम्पारण के गौनाहा प्रखंड के सीठी पंचायत के बखरी गाॅंव, जो जंगल से लगभग आधा किलोमिटर दूर है, के समीप झाड़ी बसवारी में एक हिंसक वन पशु का बच्चा मरा पाया गया। चर्चा है कि उक्त बच्चा एक ग्रामीण की झोपड़ी में रात के वक्त घुस आया था और अहले सुबह घर वाले पाये कि वह मरा पड़ा है। ततपश्चात् वन विभाग की लफड़ा से बचने हेतु वे चुपचाप उसे कोहरे के धुन्ध में नजदीक की झाड़ी-बसवारी में फेंक दिये। बाद में वन विभाग के स्थानीय कैटल गार्ड को वन पशु के बच्चे की मौत की जानकारी हुयी तो वह तुरन्त मंगुराहा रेंज के फौरेस्टर राम नारायण प्रसाद को सूचित किया जो जल्द ही घटना स्थल पर पहुॅंच गये। रेंज के रेंजर पुरषोतम सिंह उस दिन क्षेत्र से बाहर थे। 
   
अतःश्री प्रसाद ने तुरन्त ही मरे बच्चे को गौनाहा लाये तथा जहाॅं स्थानीय पशु चिकत्सालय के प्रभारी डाॅ0 संतोष कुमार ने उसका पोस्ट माॅंर्टम किया तथा उसकी मृत्यु का कारण ज्यादा ठंढ़ लगना बताया। उसके बाद उस मृत हिंसक पशु के बच्चा को मंगुराहा रेंज कार्यालय के पास गाड़ दिया गया।
वैसे मृत हिंसक वन पशु के बच्चे की पहचान के बारे मे विभिन्न तरह के दावे किये जा रहे हैं। मृत बच्चा को कोई रायल बंगाल टाइगर का शावक बता रहा है, तो कोई तेन्दुआ या चीता का बच्चा, तो कोई फिशिंग कैटयानि वन बिलार का बच्चा। परन्तु इस वन प्रमण्ड़ल के पदाधिकारी एस0 चन्द्रशेखर ने तराई तरंग से बताया कि मृत बच्चा निसंदेह फिशिंग कैट का ही था। वैसे सूचना है कि उक्त बच्चे के पोस्ट माॅंर्टम तथा उसे गाड़ने के समय श्री चन्द्रशेखर गौनाहा या मंगुराहा में स्वयं मौजुद नहीं थे। श्री चन्द्रशेखर अत्यन्त कर्मठी, ईमानदार एवं स्पष्टवादी व्यक्ति हैंा अतः उनके बयान पर शक करना उचित प्रतीत नहीं होता है। फिर भी प्रश्न उठता है कि उनके अधिनस्त पदाधिकारी गलत सूचना देकर क्या उन्हें दिगभ्रमित नहीं कर सकते हैं ? और उन्होंने वहीं बताया हो जो उनसे कहा गया हो। यह सर्वविदित है कि बाल्मीकि टाइगर रिजर्व पर विगत दो दशक से बाघ संरक्षण तथा वर्धन हेतु करोड़ो रुपयें पानी के तरह भारत सरकार ने बहाया है। ऐसी स्थिति में किसी बाघ के शावक को ठंढ़ या किसी भी कारण से मृत पाया जाना पूरे देश में बाघ संरक्षण के प्रति लगाव रखने वालों के लिए एक विप्लव पैदा करने वाली घटना मानी जाती। और वन विभाग के पदाधिकारियों को सफाई देते नहीं बनती कि आखिर बाघ का शावक कैसे मरा। जानकारों का कहना है कि पूर्व में प0 चम्पारण के जंगलों में ठंढ़ से किसी बाघ के मरने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
अतः जानकारों को शक है कि वन विभाग के कर्मियों ने मामला को दबा देने के लिए आनन फानन में गौनाहा में ही उसका पोस्ट माॅर्टम करा कर दफना दिया। यह प्रश्नहै कि उस वन पशु बच्चे को बेतिया लाकर मीड़िया तथा बड़े पदाधिकारियों की उपस्थिति में भी तो पोस्ट माॅंर्टम कराया जा सकता था। अगर ऐसा होता तो सब कुछ दुू ध का दूुध, पानी का पानी हो गया होता। परन्तु ऐसा न कराकर संबंधित पदाधिकारियों ने स्वयं को शक के कटघरे में खड़ा कर लिया है। अभी अति ठंढ़ का मौसम है, अतः शव दो तीन दिनों तक सड़ता तक नहीं अगर उसे थोड़े वर्फ में रख दिया जाता। मृत पशु बच्चा के बाघ का शावक होने की बात को हवा इस तथ्य से भी मिल रही है कि उसका पोस्ट माॅर्टम करने वाले डाॅ0 कुमार के पिता छपरा या सिवान में वन विभाग के बड़े पदाधिकारी हैं। अतः संभंव है कि वन कर्मियों ने डा0 कुमार के सहयोग से बाघ के बच्चे की मृत्यु का खबर फैलने से उत्पन्न होने वाली खतरा को टालने हेतु उसे जल्दबाजी में रफा दफा कर दिया। संभव है कि जबतक तराई तरंग का यह अंक आये तबतक मृत वन पशु बच्चा का शव 
पूर्णतः सड़गल जाय क्योंकि उसे काफी मात्रा में नमक के साथ गाड़े जाने की सूचना है। ऐसी स्थिति में उसकी पहचान करना असंभव हो जायेगा। उसकी पहचान मात्र उसकी हड्डियों की डी0एन0ए0 जांच से ही संभव होगी जो वन पदाधिकारी होने नहीं देंगे क्योंकि ऐसा करना उनके हित में नहीं होगा। फिर भी सत्य की पुकार है कि मृत वन पशु के बच्चे कीहड्यिों की डी0एन0ए0 जांच हो। 
 
  संपादक: प्रकाश चन्द्र दूबे, संपादकीय संयोजक: पवन पाठक, संपादकीय सलाहकार मंडल: सुनील दूबे, अपफरोज आलम ‘साहिल’, राजीव रंजन वर्मा,शिव कुमार, मध्ुसूदन मणि त्रिपाठी, संपादकीय सहयोगी: अजय दूबे, मृत्युंजय दूबे, पृष्ठ सज्जा: राकेश कुमार, सोनू भारद्वाज, संपादकीय एवं प्रकाशन कार्यालय: न्यू काॅलोनी, डाक बंगला रोड, बेतिया- 845438 ;बिहारद्ध। दूरभाषः 06254-24730, 9431212198, ई-मेलः जमतंपजंतंदह/हउंपसण्बवउ, 
स्वामी तथा प्रकाशक: प्रकाश चन्द्र दूबे, मुद्रक: विनोद कुमार द्वारा कुमार प्रिंटर्स, तीन लालटेन चैक, बेतिया से मुद्रित। सारे पद अवैतनिक और अस्थाई हैं। तराई तरंग से सम्बध्ति किसी भी विवाद का निबटारा बेतिया न्यायालय में ही होगा । त्छप् ज्पजसम ब्वकम रू ठप्भ्भ्प्छक्4770ध्04ध्1ध्2007.ज्ब्